Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 450
________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना खण्ड : नवम जी के लिए नियमित रूप से ध्यान करना आवश्यक है। इसी का यह परिणाम है कि आपकी वाणी, भाव, मुद्रा और व्यक्तित्व में एक आध्यात्मिक ओजस्विता, वर्चस्वता और साथ-ही-साथ सुकुमारता के भी दर्शन होते हैं। महासती जी ने योग को जनजन के लिए उपयोगी और अभ्यास करने योग्य बनाने के लिए एक संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित पद्धति का आविष्कार किया है, जिसका वह साधक-साधिकाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण देती रहती हैं। यद्यपि यह विषय तो साक्षात् उनसे सीखने का ही है किन्तु संक्षेप में उसका निष्कर्ष यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। महासती जी की यह ध्यान विधि प्रार्थनामुद्रा, योगमुद्रा, दीपकमुद्रा, वीतरागमुद्रा तथा आनन्दमुद्रा के रूप में पाँच विधाएँ लिये हुए है। इसके सहारे अनेक साधक-साधिकाओं ने अभ्यास किया है और उसमें स्पृहणीय प्रगति भी की है। महासती जी इस सम्बन्ध में समय-समय पर प्रशिक्षण भी दिया करती हैं। उसी के आधार पर यहाँ इस ध्यान विधि को संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैंमुद्रा और ध्यान का सम्बन्ध : ___ मुद्रा शब्द मुद् धातु से बना है, जिसका सामान्य अर्थ प्रसन्नता है। पारम्परिक दृष्टि से देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अथवा जिन्हें देखकर देवता प्रसन्न होते हैं, उन्हें तन्त्र शास्त्र में मुद्रा कहा जाता है। मुद्रा में सामान्यतया हाथ और अंगुलि की विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। विभिन्न परम्पराओं में मुद्रा शब्द के विभिन्न अर्थ रहे हैं किन्तु योगपरम्परा में मुद्रा का अर्थ विशिष्ट प्रकार के आसन आदि में रहा है। जैन धर्म में मुद्रा का मुख्य प्रयोजन चित्त की प्रसन्नता ही माना गया है। जैन दर्शन आत्मोन्मुखी दर्शन है अत: उसकी दृष्टि में मुद्रा वस्तुत: वह पद्धति है जिसके माध्यम से चित्तवृत्ति को एकाग्र करने का अभ्यास किया जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा गया है कि वन्दन, ध्यान एवं सामायिक करते समय मुख एवं शरीर के विभिन्न अंगों की आकृति बनाई जाती है, उसे मुद्रा कहते हैं। वस्तुत: जैन परम्परा में जिन मुद्राओं को उल्लिखित किया गया है और पूज्या साध्वी श्री उमरावकुंवर जी म.सा. 'अर्चना' ने जिन्हें ध्यानसाधना का एक आवश्यक अंग माना है, उनमें योगमुद्रा, जिनमुद्रा आदि महत्त्वपूर्ण हैं। जिनमुद्रा ~~~~~~~~~~~~~~~ 30 ~~~~~~~~~~~~~~~ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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