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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
खण्ड : नवम
का विवेचन किया है जिनका आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' और हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' में उल्लेख हुआ है।
तत्पश्चात् पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वायवी, धारणाओं का, जो पूर्ववर्ती जैन योग के ग्रन्थों में व्याख्यात हैं, संक्षेप में सूचन किया है।
पार्थिवी धारणा के सम्बन्ध में लिखा है-अपने आधारभूत स्थान पृथ्वी, समुद्र, पर्वत आदि विशाल आकार का विमर्श करना, उस पर चिन्तन को एकाग्र करना, फिर उन पर अपने को स्थित मानकर अपनी आत्मा के सामर्थ्य का उद्भावन करना अथवा अपने सर्व शक्ति सम्पन्न वीतराग स्वरूप का अनुभव करना पार्थिवी धारणा है। नाभि में परिकल्पित कमल के प्रज्वलित होने के कारण सब दोष दग्ध होते जा रहे हैं,ऐसा अनुभव करना आग्नेय धारणा है, नाभिकमल में दोषों के दग्ध हो जाने के कारण जो भस्म रूप अवशेष रहता है उसे प्रचण्ड वायु का झोंका उड़ाकर ले जा रहा है, सर्वत्र विकीर्ण कर रहा है, ऐसा चिन्तन करना मारुति धारणा है। उस अवशिष्ट भस्म के प्रक्षालनार्थ विशाल मेघराशि की अनुभूति करना वारुणी धारणा हैं।15
पदस्थ ध्यान को परिभाषित करते हुए लिखा है कि जो श्रुतज्ञान ॐ, ह्रीं, हैं नमो अरहताणं, अ, सि, आ, उ, सा आदि शब्द-मन्त्रों, शब्दों एवं नामों का आलम्बन लेकर किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान है।
जो संस्थान आकृति-विशेष का आलम्बन लेकर किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान कहा जाता है। जो सब प्रकार के कर्मरूप मल से रहित परम ज्योतिर्मय स्वरूप आत्मा के अमूर्त स्वरूप का आलम्बन लेकर किया जाता है, वह रूपातीत ध्यान हैं।16
आगे उन्होंने ध्यान एवं स्वाध्याय की विलक्षणता या भेद बतलाते हुए लिखा है-स्वाध्याय और ध्यान में यह अन्तर है कि ध्यान में तन्मयता होती है। स्वाध्याय में संलग्नता होती हैं।17 जो निर्विचार-विचारों और भावों से अतीत होता है उस ध्यान को निरालम्बन ध्यान कहा जाता है।18 15. वही, 4.16-21 16. वही, 4.22-24 17. वही, 4.25 18. वही, 4.26
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