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खण्ड : नवम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग का वर्णन करने के बाद उन्होंने अनित्यादि द्वादश भावनाओं एवं मैत्र्यायादि चार भावनाओं का विवेचन किया है।12
चतुर्थ प्रकरण में ग्रन्थकार ने ध्याता का लक्षण, उसके गुण, ध्यान की प्रक्रिया, ध्यानमुद्रा, ध्यान के लिये उपयोगी स्थान, आसन, ध्यान के भेद, सालम्बन ध्यान के प्रकार, प्रेक्षा की परिभाषा, पार्थिवी आदि धारणायें, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान, निरालम्बन ध्यान का स्वरूप, समाधि की परिभाषा, उसके उपाय, लेश्या का लक्षण उसके भेद इत्यादि विषयों का विवेचन किया है जो ध्यानयोग में सहयोगी हैं।
ध्याता को परिभाषित करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि जिस व्यक्ति में अपने स्वरूप को अधिगत करने की, जानने की अभीप्सा होती है, वही ध्यान का अधिकारी होता है। वह अधिकारी स्वस्थ, दृढ़ शरीरयुक्त, विनीत, कलहरहित, अरसलोलुप, अप्रमत्त, आलस्यरहित हो। यह वांछित है। ध्यान का अधिकारी मुमुक्षु-मोक्षाभिलाषी, संवृत्त कर्मावरणों का संवरण करने में लीन तथा स्थित आशय युक्त या चैतसिक चंचलता रहित हो,13 यह भी अपेक्षित है।
ध्यानाभ्यासी किस प्रकार ध्यान में संलग्न हो, इसका निरूपण करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि वह अपनी देह को आगे की ओर थोड़ी झुकायी रखे, नेत्रों को बन्द रखे, अपनी इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त किया रहे, शरीर को सुस्थिर-शिथिल बनाये रहे, बाँहों को घुटनों की ओर प्रलम्बित कर पैरों की एड़ियों को परस्पर मिलाकर पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर ध्यान का अभ्यास करे अथवा वह पद्मासन आदि में स्थिर होकर ध्यान करे।14
__ध्यान के बतलाये गये उपयोगी स्थल लगभग उसी प्रकार के हैं, जैसा प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। उन्होंने जैन परम्परानुगत सालम्बन और निरालम्बन के रूप में ध्यान के दो भेद बतलाये हैं।
सालम्बन ध्यान के भेदों में उन्होंने पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान
12. वही, 3.12-27 13. वही, 4.1-4 14. वही, 4.5-6
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