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खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
भाज्य (ईश्वर और पच्चीस तत्त्व) का स्वरूप जाना जाता है उसे सम्प्रज्ञात समाधि और जिसमें किसी ज्ञेय का ज्ञान नहीं होता उसे असम्प्रज्ञात समाधि कहा गया है। दूसरे शब्दों में उन्हें क्रम से सबीज समाधि और निर्बीज 2 समाधि भी कहा गया है। सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद हैं - सवितर्क, सविचार, सानन्द और सस्मित । जब स्थूल महाभूतों और इन्द्रियों को विषयरूप से ग्रहण करके पूर्वापर के अनुसंधानपूर्वक शब्द व अर्थ के उल्लेखभेद के साथ भावना की जाती है तब सवितर्क समाधि होती है। इसी आलम्बन में जब पूर्वापर के अनुसंधान और शब्दोल्लेख के बिना भावना प्रवृत्त होती है तब निर्वितर्क समाधि होती है।
जहाँ ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हो वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है।
निर्बीज समाधि में समस्त क्लेश-कर्मों के बीज नष्ट हो जाते हैं। इस अवस्था तक पहुँचते - पहुँचते साधक की समस्त वृत्तियों का पूर्ण रूप से निरोध हो जाता है, फलस्वरूप उसका चित्त शांत, निश्चल और निस्पृह होता है। चित्तवृत्ति के निरोध से द्रष्टा/आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।63 ध्यान की परम स्थिति को प्राप्त हो जाता है।
___महर्षि पतंजलि ने सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात द्विविध समाधि को योग में परिगणित किया है64 इसी दृष्टि से 'चित्तवृत्ति निरोध' यह योग का लक्षण किया है। सम्प्रज्ञात योग में कतिपय चित्तवृत्तियाँ होती हैं तथा असम्प्रज्ञात में चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध हो जाता है। उभयविध योग में योग के लक्षण के समन्वय हेतु सूत्र में सर्व पद का समावेश सूत्रकार ने नहीं किया है।
भाष्यकार व्यास के अनुसार असम्प्रज्ञात समाधि में सर्व चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है तथापि सम्प्रज्ञात समाधि में विवेक-ख्यातिरूप सात्विक वृत्ति विद्यमान रहती है, अत: भाष्यकार ने "सर्वशब्द का ग्रहण सूत्र में न होने से सम्प्रज्ञात भी योग है,
62. सबीज और निर्बीज ध्यान का उल्लेख उपासकाध्ययन (622-23) में भी हुआ है। 63. योगसूत्र 1.3 64. योगसूत्र, 1.17, 18, 46. 51
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