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शौरसेनी प्राकृत साहित्य में ध्यानयोग
__खण्ड : तृतीय
इसी तथ्य का आगे और विशुद्ध रूप में वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि जिसका आत्मस्वरूप उद्भासित हो चुका हो, जिसने ममत्व का नाश कर दिया हो, इन्द्रियों को जीत लिया हो, वह शुभ ध्यान में रत होता हुआ आत्मा के चिन्तन में संलग्न रहता है। जिसने सब प्रकार के विकल्पों का वर्जन कर दिया है, आत्मस्वरूप में मन का निरोध कर दिया है वह सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक धर्म का चिन्तन करता है, यही उत्तम ध्यान है।68
निरूपण करते हुए ग्रंथकार ने लिखा है कि जहाँ आत्मगुण विशुद्धि प्राप्त कर लेते हैं वहाँ कर्मों का उपशम और क्षय हो जाता है। लेश्याएँ भी शुक्ल हो जाती हैं, वहाँ जो एकाग्रतामूलक चिन्तन होता है वह शुक्लध्यान कहा जाता है।
जिसके मोह का नि:शेष रूप में विलय हो गया है, जिसके कषाय क्षीण हो गये हैं तथा अन्त समय में जो अपने स्वरूप में लीन होकर एकाग्र चिन्तन करता है वह शुक्लध्यान है।69
मुख्यतया यह ग्रंथ अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं पर लिखा गया है। इसमें द्वादश भावनाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। दसवीं लोकानुप्रेक्षा के अन्तर्गत उन्होंने लोकवर्ती जीवनिकाय का विस्तार से वर्णन किया है। इससे प्रकट होता है कि जब
अनुप्रेक्षाएँ सिद्ध हो जाती हैं तब व्यक्ति का मन जागतिक द्वन्द्वों और विकल्पों से दूर रहने की स्थिति प्राप्त कर लेता है। वैसा हुए बिना ध्यान कदापि सिद्ध नहीं हो पाता। अतएव अनुप्रेक्षाओं के अभ्यास के साथ ध्यानसाधना में जो साधक समर्पित होते हैं वे निर्विघ्नतया अपने आध्यात्मिक उद्यम में उत्तरोत्तर सफल होते जाते हैं और ध्यानसिद्धि प्राप्त कर अन्तत: वे परिनिर्वाण रूप में अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेते हैं।
योगसार :
योगीन्दुदेव ने 'योगसार' के प्रारम्भ में ध्यान के सम्बन्ध में सिद्ध परमात्मा को नमस्कार करते हुए लिखा है - जिन्होंने शुद्ध ध्यान में स्थित होकर कर्ममल को जला डाला तथा उत्कृष्ट परमात्मपद को प्राप्त किया उन सिद्ध परमात्माओं को मैं नमन करता हूँ। 68. वही, 481-482 69. वही, 484-485 70. योगसार गा. 1 पृ. 1 Mmmmmmmmmmmmmmm 22 ~~~~~~~~~~~~~~~
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