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जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
द्रष्टा रहता है। जैन जगत् के महान् आचार्य कुन्द कुन्द ने अपने 'समयसार', 'प्रवचनसार' आदि ग्रन्थों में शुद्धात्मा - आत्मा के ज्ञायकस्वरूप का बड़े विस्तार से विवेचन किया है और उन्होंने बतलाया है कि इसकी अनुभूति ही परम सत्य की अनुभूति है । यही निश्चय दृष्टि है जिसमें किसी भी प्रकार का विवाद या संशय नहीं है। इसके अतिरिक्त जगत् के सभी भाव व्यावहारिक हैं, पर हैं। व्यवहार से निश्चय में लौटना ही शुद्ध स्वरूप का अधिगम है।
खण्ड : नवम
कल्याणमित्र श्री सत्यनारायण गोयनका के शब्दों में विपश्यना सत्य की उपासना है। वर्तमान क्षण में जीने का अभ्यास है । वह क्षण जिसमें भूत की अथवा भविष्य की कोई कल्पना नहीं। यादों की आकुल आहें अथवा स्वप्नों की व्याकुल चाहें नहीं । आवरण, माया, विपर्यास, भ्रम-१ - भ्रांति - विहीन इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना - समझना यही विपश्यना है । विपश्यना सम्यक्दर्शन है। विपश्यना सम्यक् ज्ञान है । विपश्यना सम्यक् आचरण है।
विपश्यना आत्मदर्शन, आत्मनिरीक्षण, आत्म-परीक्षण है। स्वयं अपना लेखाजोखा रखते रहने की जागरुकता विपश्यना है। अज्ञान से ज्ञान, मैल से निर्मलता, रोग से आरोग्य, दुःख से दुःखविमुक्ति की ओर बढ़ते रहने का स्वप्रयास विपश्यना है।
विपश्यना आत्मसंवर है । अपने मन पर मैल न चढ़ने का संवर । विपश्यना आत्म-निर्जरा है। अपने मन के पुराने मैल उतार फेंकने की निर्जरा । नया मैल कोई दूसरा नहीं, हम स्वयं मोह - विमूढ़ होकर चढ़ाते रहते हैं । अतः स्वयं ही प्रयत्नपूर्वक सतत जागरूक रहकर नया मैल न चढ़ने देना विपश्यना है । पुराना मैल किसी अन्य
नहीं, प्रमादवश स्वयं हमने चढ़ाया है। इसे दूर करने की सारी जिम्मेदारी हमारी अपनी है, किसी अन्य की नहीं । अतः अपना पुराना मैल स्वयं उतारते रहना विपश्यना है। धीरज-पूर्वक प्रयत्न करते हुए थोड़ा-थोड़ा मैल उतारते रहेंगे तो एक दिन पूर्ण निर्मलता प्राप्त हो ही जाएगी। मन निर्मल होगा तो सद्गुणों से भर जाएगा, दूषित मन पर आधारित सारे शारीरिक रोग, सारे दुःख स्वतः दूर हो जाएंगे। विपश्यना आरोग्यवर्धिनी संजीवन औषधि है, चित्तशोधनी धर्म- गंगा है, दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा है, मुक्तिदायिनी धर्मवीथी है ।
विपश्यना शील, समाधि में स्थित होकर अन्तर्प्रज्ञा जाग्रत करने का पालन
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