Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 436
________________ आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना की वर्तमानयुगीन महान् कृति है । आचार्य श्री तुलसी की योग में अनन्य रुचि और आस्था थी । वे केवल इसके अध्येता ही नहीं थे वरन् इसके अभ्यासी भी थे । उन्होंने जैन योग पर 'मनोनुशासनम्' नामक ग्रन्थ की संस्कृत में सूत्रबद्ध शैली में रचना की । योगसाधना में चित्त या मन का सबसे अधिक महत्त्व है। यह मन ही ऐसा है जो यदि दुश्चिन्तन से ग्रस्त और दुष्प्रवृत्त हो जाय तो मनुष्य को पतन के अत्यन्त गहरे गर्त में धकेल सकता है। वही यदि सत् चिन्तन में संलग्न हो जाय तो उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचा सकता है। ध्यान साधना तो विशेष रूप से मन या चित्त के साथ ही जुड़ी हुई है। इसके लिए मन को अनुशासित, नियंत्रित या सुव्यवस्थित करना परम आवश्यक है। आचार्य श्री तुलसी के 'मनोनुशासनम्' में इसी विषय को लेकर जैन सैद्धान्तिक दृष्टि से और स्वानुभूति के आधार पर विवेचन किया गया है। खण्ड : नवम IP यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। पहले प्रकरण में मन की परिभाषा, इन्द्रिय और मन, आत्मा का स्वरूप, बद्ध और मुक्त आत्मा की परिभाषा, आत्मा के प्रकार, आत्मशोधन में योग का स्थान, शोधन और निरोध की प्रक्रिया, आहारशुद्धि, इन्द्रियशुद्धि, श्वासोच्छ्वास शुद्धि और कायशुद्धि तथा मन - वाक्शुद्धि के उपायों का विवेचन किया गया है। द्वितीय प्रकरण के पहले सूत्र से चौदहवें सूत्र तक मूढ़, विक्षिप्त यातायात, श्लिष्ट, सुलीन, निरुद्ध मन तक इन छह भेदों का विश्लेषण किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने ‘योगशास्त्र' में मूढ़ से सुलीन मन तक पाँच भेदों का अनुभूति के आधार पर विवेचन किया है। आचार्य तुलसी ने निरुद्ध मन के नाम से छठा भेद और जोड़ दिया है। उन्होंने लिखा है कि जो मन मिथ्यादृष्टि तथा चारित्रमोह से व्याप्त होता है, उसे मूंढ़ कहा जाता है, वैसा मन योगसाधना के योग्य नहीं होता क्योंकि जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती, जिसका चारित्र व्रत या यम-नियम आदि से युक्त नहीं होता वह व्यक्ति योगसाधना का अधिकारी नहीं हो सकता क्योंकि उसके मन में तो मोहप्रसूत मूढ़ता व्याप्त रहती है। विक्षिप्त मन का विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है जो मन इधर-उधर विचरण करता रहता है उसे विक्षिप्त कहा जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने विक्षिप्त मन 16 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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