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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
खण्ड: नवम
अभ्यास है। स्थितप्रज्ञ होने का शुभायास है। यही विपश्यना है। विपश्यना निस्संग दर्शन है, निर्लिप्त निरीक्षण है, नितांत अनासक्ति है।
विपश्यना आत्म-शुद्धि है, आत्म-विमुक्ति है। विकार-विमुक्त शुद्ध चित्त में मैत्री और करुणा का अजस्र झरना अनायास झरता रहता है। यही मानव जीवन की चरम उपलब्धि है। यही विपश्यना साधना की चरम परिणति है।' आचार्य तुलसी का मनोनुशासन' :
___जैन आम्नाय के प्रबुद्धचेता, धर्मप्रभावक आचार्यों एवं मुनियों ने जैन विद्या, दर्शन, साहित्य, योग आदि के सन्दर्भ में समय-समय पर जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं, वे जैन इतिहास के गौरवास्पद पृष्ठ हैं, आज भी वे जिज्ञासु एवं मुमुक्षुजनों के लिए प्रेरणास्पद हैं।
आचार-विचार विषयक कतिपय भिन्नताओं के बावजूद जैन संस्कृति, धर्म और दर्शन एक व्यापक रूप लिये हुए है, जो अनेकान्त की दृष्टि से सभी परम्पराओं को अपने में समाविष्ट कर लेता है।
वर्तमान शताब्दी में जैन धर्म के जिन महापुरुषों ने धर्मप्रभावना, लोकजागरण एवं जैन तत्त्व-ज्ञान के विकास की दृष्टि से जो महनीय कार्य किये हैं, उनमें आचार्य श्री तुलसी का नाम बड़े आदर के साथ लेने योग्य है।
__आचार्य श्री तुलसी श्वेताम्बर परम्परा के अन्तर्वर्ती तेरापंथ धर्मसंघ के नवम आचार्य थे। राजस्थान के मारवाड़ संभाग के अन्तर्गत लाडनूं में उनका जन्म हुआ। नौ वर्ष की अल्पायु में वे तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालू गणि के द्वारा दीक्षित हुए। उन्हीं की छत्र-छाया में उन्होंने विद्याध्ययन किया। उनके विद्याध्ययन के अनन्य सहयोगी एवं मार्गदर्शक आशु कविरत्न पं. रघुनन्दन शर्मा थे। व्याकरण, साहित्य, न्याय, दर्शन आदि का उन्होंने गहन अध्ययन किया। जैन आगम एवं शास्त्रों का अध्ययन उन्होंने अपने परम पूज्य गुरुवर्य से तथा विद्वान् सन्तों से किया। बावीस वर्ष की अवस्था में ही वे तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य पद पर समासीन हुए।
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धर्म जीवन जीने की कला : विपश्यना क्या है ? 65-67
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