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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
खण्ड : नवम
बौद्ध दर्शन के अनुसार पदार्थ का अस्तित्व तो क्षणवर्ती है। इसलिए इसे क्षणिकवादी या अनित्यत्ववादी कहा जाता है। क्षणों का सन्तान या तानों-बानों का योग ही मूर्त रूप में दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणार्थ-जल का प्रवाह एकरूप दिखलाई देता है, किन्तु वहाँ प्रवाह में आने-जाने वाले जलकणों का पिछले जलकण निरन्तर स्थान लेते रहते हैं। यह इतनी सूक्ष्म प्रक्रिया है कि दृष्टिगोचर नहीं होती। किन्तु तत्त्वत: पदार्थ का अपना एकाकार रूप नहीं है, वह तो क्षण-क्षणवर्ती कण-कण के संयोग का प्रतिफलन है। विपश्यना का साधक साक्षीभाव से इस अनित्यता का अपनी देह में दर्शन करता रहता है। क्षण भर में उसका मन मस्तिष्क से पैर तक, मुख के तालु से अंगुष्ठ तक, रोम-रोम तक यात्रा करता जाता है। क्षणवर्ती, प्रतिक्षण विनश्वर परमाणुओं के प्रतिक्षण अन्तर्दर्शन की जो स्थिति बनती है वह साधक में साक्षीभाव या द्रष्टाभाव उत्पन्न करती है। इसका परिणाम यह होता है कि उस व्यक्ति के मन में फिर विकार उत्पन्न नहीं होते। उसके अचेतन मन में संचित संस्कार, यहाँ पड़ी हुई ग्रन्थियाँ मिट जाती हैं। वस्तुत: यह तो अभ्यास का विषय है, व्याख्या का नहीं। बौद्ध दर्शन के क्षणिकवादी और शून्यवादी दर्शन पर यह पद्धति आधारित है। दार्शनिक दृष्टि से क्षणिकवाद पर अनेक महायानी आचार्यों ने नैयायिक शैली से संस्कृत में बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं क्योंकि वह युग विभिन्न मतवादियों में परस्पर शास्त्रार्थ और तात्त्विक वाद-विवाद की मुख्यता लिये हुए था। यही कारण है कि महायान और उसकी उत्तरवर्ती परम्परा के युग में बुद्धकालीन यह ध्यान पद्धति विस्मृत सी होती गई।
कल्याणमित्र गोयनकाजी एवं उनके अनुयायियों के प्रयास से भारतवर्ष तथा कतिपय अन्य देशों में भी इसके अनेक केन्द्र कार्यशील हैं।
जैनध्यान पद्धति के साथ इसकी सम्पूर्णत: संगति तो सिद्ध नहीं होती किन्तु विपश्यना-संप्रेक्षण-अन्तर्वीक्षण तथा तद्गत संवेदनानुभव आदि दृष्टि से दोनों में सामंजस्य सिद्ध होता है।
साक्षीभाव या द्रष्टाभाव पर विपश्यना पद्धति में जो जोर दिया गया है वह वास्तव में साधक को विचारमुक्त होने का एक मार्ग देता है। यह वह मार्ग है जिसे जैन तीर्थंकर धर्मप्रतिष्ठापक अनादिकाल से बतलाते आ रहे हैं। आत्मा जब विशुद्धावस्था प्राप्त कर लेता है तब वह सर्वथा ज्ञायक स्वरूप हो जाता है। मात्र ज्ञाता
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