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आधुनिक चिन्तक और ध्यानसाधना
खण्ड: नवम
रही है। इसलिए उससे सीधा विपश्यना शब्द बन जाता है। यदि भाषाशास्त्रीय दृष्टि से विचार किया जाय तो ऐसा अनुमान होता है कि भारोपीय भाषा परिवार में प्रारम्भसे ही देखने के अर्थ में इन दोनों ही धातुओं का प्रयोग होता रहा है। आगे चलकर संस्कृत में केवल इस अर्थ में दृश् धातु ही अवशिष्ट रही है। पालि और प्राकृत में दोनों धातुएँ विद्यमान रहीं। .
जैन वाङ्मय और बौद्ध वाङ्मय में प्रचलित इन दोनों शब्दों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि विपश्यना पद्धति को प्रेक्षा या संप्रेक्षण के आधार पर की जाने वाली ध्यान-साधना का पर्याय कहा जा सकता है। उसमें बौद्ध दर्शन सम्मत तत्त्वों का आधार जुड़ता रहा। अत: अपने आप को अन्त:रिक्तीकरण-अपने आपको भीतर से खाली करने के उद्यम के रूप में एक विशेष भाव और जुड़ा। जब साधक श्वास आदि का प्रेक्षण करे, उसका उस समय यह प्रयास रहे कि निरन्तर आते रहने वाले दूसरे भावों से वह अपने आप को खाली करता जाए। अपने आपको रिक्त करने की यह प्रक्रिया जब बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त कर लेती है तब फिर कोई भी भाव बाकी नहीं रह जाता है। बौद्ध दर्शन में उसे महाशून्य कहा जाता है जो परिनिर्वाण का सूचक है। बौद्ध दार्शनिकों ने उसे अभावमूलक नहीं माना है किन्तु निर्वाण के रूप में सद्भावमय स्वीकार किया है। उसे परब्रह्म या सिद्ध परमेश्वर की तरह शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय बतलाया है।
विपश्यना का अभ्यास श्वास-अंग-प्रत्यंग आदि के वीक्षण द्वारा मन की एकाग्रतापूर्वक पूर्व-संचित संस्कारों का नाश कर परम शान्ति के, परिनिर्वाण के मार्ग की ओर ले जाता है। मनोगत विकारों का मिटना, दूषित संस्कारों का प्रक्षालन, अन्त:करण का परिमार्जन, द्रष्टा भाव का उदय, कर्ताभाव का विलय ये सब इस साधना में सधते जाते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि साधक का ऐहिक या सांसारिक जीवन भी सुखमय बन जाता है क्योंकि जब द्रष्टा या दर्शक भाव उदित रहता है तो अहंकार या अभिमान, आसक्ति-ममत्व-मोह ये सहज ही अपगत होते जाते हैं।
विपश्यना में श्वासोश्वास और शारीरिक स्पन्दनों को देखने के क्रम में वह • एड़ी से चोटी तक देह के सारे अंगोपांगों को देखने का अभ्यास करता है। यह देखने
का क्रम अंगों के बाह्य-आभ्यन्तर, चार्मगत-धमनीगत, अत्यन्त सूक्ष्म स्पन्दन, संवेदन rrrrrrrrrrrrrrrr 10 rrrrrrrrrrrrrr~
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