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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
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करता है, आत्मप्रतिकूल क्रियाओं से दूर रहता है, वह आध्यात्मिक शांति के पथ पर अग्रसर होने से स्फूर्तिमान होता है । 33 उन्होंने क्रोध आदि कषाय, अशुभयोग आदि की त्याज्यता, तप संयम आदि की ग्राह्यता का प्रतिपादन किया है, साथ ही साथ मानापमान के प्रति चित्त में समान भाव, स्वर्ण एवं पाषाण में समान दृष्टि, वन्दक और निन्दक में समान भाव को स्वीकार करने का संकेत किया है। 34
ध्यानयोगी का क्रियाकलाप जितना स्वभावानुरत, परभावविरत होता है, वह उतना ही अपनी साधना में आगे बढ़ सकता है।
खण्ड : अष्टम
उन्होंने निष्कर्ष के रूप में अन्त में कहा है कि आत्मभाव वस्तुतः चेतना के आधार पर ज्ञानदर्शन रूप ज्ञायक भाव ही है, यही वास्तव में आत्मा का वास्तविक परिवार है। अन्य सब सांसारिक परिजन आदि तो संयोगजन्य हैं, अस्थिर हैं।
इस आशय के साथ ग्रंथकार ने अपने आपको सम्बोधित कर कहा है- आत्मन् ! तू समस्त जागतिक प्रपंचों का त्याग कर आत्मभाव में ही, आत्मध्यान में रमण कर, उसी से शांति का स्वरूप अधिगत होगा । 35
योगिराज अन्त में आत्मविभोर होकर कहते हैं, अहो ! मेरा बड़ा सौभाग्य है, मैं धन्य हूँ, मेरे आत्माराम को मेरा वन्दन हो, अनन्त फलप्रदायक दानेश्वर महान दानी, परमेश्वर प्रभु से जिसकी भेंट हो जाती है वह वस्तुतः धन्य है । 36
भक्तियोगी, ज्ञानयोगी या ध्यानयोगी जब आत्मानुभूति के सरोवर में निमग्न हो जाता है, तब उसे परमात्मभाव की ऐसी दिव्य आध्यात्मिक झलक अधिगत होती है, जिससे उसके हर्ष का कोई पार नहीं रहता ।
मुनिसुव्रतस्वामी के स्तवन में योगिवर्य ने एक ऐसा भावचित्र उपस्थित किया है जो साधक के सामने विद्यमान अनेक मतमतान्तरों को प्रस्तुत करता है। आत्मा के सम्बन्ध में परस्पर इतने भिन्न मत-मतान्तर हैं कि मनुष्य उनमें विभ्रान्त हो जाता
33. वही, 16.7
34. वही, 16.8-9
35. आनन्दघन पदावली - श्री शान्तिनाथ स्तवन 16.11
36. वही, 16-13
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