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खण्ड: अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
है। उन मतमतान्तरों का इस पद में संक्षेप में संकेत करते हुए उन्होंने मुनिसुव्रत स्वामी की सेवामें इस अभ्यर्थना का भाव व्यक्त किया है कि इन मत-मतान्तरों के जंजाल में मुझे चित्तसमाधि कैसे प्राप्त हो, भगवन् ! मुझे मार्ग दिखाएँ।
। तत्पश्चात् वे प्रभु-सुव्रतस्वामी से अंत:प्रेरित होकर ये उद्गार व्यक्त करते हैं कि जगत् में प्रचलित मत-मतान्तरों का पक्षपात छोड़कर, उनमें किसी भी प्रकार का भाव न रखकर आत्मा में रत होने से ही चित्त-समाधिरूप लक्ष्य प्राप्त होता है। जो आत्मा के ध्यान में निरत रहता है, एकाग्रता पूर्वक चिन्तन करता है, वह पुरुष इन मतवादों के जंजाल में नहीं पड़ता है, ये सब तो वाग्जाल के प्रकार हैं। वास्तव में, सारभूत तो आत्मचिन्तन ही है। वही चित्त के लिए अभिलक्षणीय है।37 इस पद्य में योगिराज ने उन सब विभिन्न मतवादों की चर्चा की है, जिनमें अपने द्वारा स्वीकृत सिद्धान्तों को लेकर परस्पर विवाद करते रहते हैं। जिनमें इतना वाक्पाटव होता है, वे अपने सिद्धान्तों को उतनी ही प्रबलता से सिद्ध करने का प्रयास करते हैं किन्तु ऐसे वाद-विवादमय उपक्रमों से जीवन में आत्मा का परम साध्य सध जाये यह कदापि सम्भव नहीं है। वाद-विवाद तो परस्पर राग-द्वेष, मोहावेश ही बढ़ाते हैं। आध्यात्मिक साधक कदापि इनमें नहीं पड़ता। क्योंकि आत्मा के उत्थान और विकास की दृष्टि से इनका कोई स्थान नहीं है। वह इनको आत्मसाधना में प्रतिबंधक मानकर आत्मा के ध्यान में, परमात्मभाव में, अपने आपको एकाग्रचिन्तन द्वारा जोड़ने में निरत होते हैं, वे ही यथार्थ तत्त्वज्ञान को आत्मसात् करते हैं। जिन्होंने सत्-असत् का विवेक पूर्वक चिन्तन-परिशीलन कर आत्मचिन्तन के पक्ष को स्वीकार किया है, वे ही वास्तव में तत्त्वज्ञानी हैं। अन्त में, योगिवर्य अभ्यर्थना के शब्दों में निवेदन करते हैं कि प्रभुवर श्री सुव्रतस्वामी आप कृपा करें, आपकी कृपा से ही परमानन्दमय पद प्राप्त होगा।
अन्त में इस पद्य में आया हुआ आनन्दघन शब्द एक ओर रचनाकार के नाम का संकेत करता है, तो दूसरी ओर परमानन्द स्वरूप सघन अतिशय सुख का द्योतक भी है जो मुक्तावस्था में सदा उपलब्ध रहता है।
बावीसवें तीर्थंकर श्री अरिष्ट नेमिनाथ स्वामी की स्तुति में ऐसा लगता है कि श्री आनन्दघन जी ने दाम्पत्य राग आलापा है। इसमें आध्यात्मिकता का एक 37. वही, श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन - 20 ~~~~~~~~~~~~~~~ 23 ~~~~~~~~~~~~~~
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