Book Title: Jain Dharma me Dhyana ka Aetihasik Vikas Kram
Author(s): Uditprabhashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 427
________________ खण्ड : नवम जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम प्रशासकीय सेवा से निवृत्त होने के पश्चात् श्री ऊ.वा. खिन ने अपने आपको पूर्णतया इस कार्य में लगा दिया। श्री सत्यनारायण गोयनका, निरन्तर उनके सम्पर्क में रहे और उनके मार्गदर्शन में ध्यान-साधना में उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहे। वे अपने ध्येय के प्रति समर्पित थे अत: उन्होंने श्रद्धेय गुरुवर से वह सब प्राप्त किया जो भगवान बुद्ध के परम्परागत स्रोत से सम्बद्ध था। श्री ऊ.वा. खिन महोदय ने साधना की दृष्टि से गोयनका को अपने उत्तराधिकारी आचार्य के रूप में घोषित किया। उनको विपश्यना की दीक्षा देने और उसका प्रसार करने का अधिकार दिया। श्री ऊ.वा. खिन के दिवंगत हो जाने के पश्चात् श्री गोयनका विपश्यना के अधिकारी आचार्य के रूप में साधकों को ध्यान का मार्गदर्शन देने लगे। बर्मा में एक ऐसा राजनैतिक दौर चला कि वहाँ प्रवास करने वाले भारतीयों को भारत लौटना पड़ा। उसी दौरान सन् 1969 में कल्याणमित्र श्री गोयनका भारतवर्ष आए। विपश्यना पद्धति युक्त ध्यान-साधना इसी भारत भूमि में भ. बुद्ध द्वारा समुपदिष्ट हुई थी। उनके अनुयायी, उत्तरवर्ती महान् बौद्ध-भिक्षुओं ने उसका व्यापक रूप में प्रचार किया। किन्तु कालान्तर में यहाँ से लुप्त हो गई, उसे गोयनका ने पुन: प्रसारित करना प्रारंभ किया। साधना शिविर लगाने शुरू किये। देश में विपश्यना की चर्चा होने लगी। जिज्ञासु भाई-बहिन शिविरों में सम्मिलित होने लगे। विदेशी जिज्ञासु जन भी आने लगे। भाग लेने वाले सभी साधकों ने नव अनुभूति प्राप्त की। श्री गोयनका की यह मान्यता है कि यही वह मार्ग है जिससे क्लेश, अशान्ति तथा वासना से कलुषित जीवन विमुक्ति पा सकता है। महाराष्ट्र में नासिक जिले के अन्तर्गत इगतपुरी में 'विपश्यना विश्व विद्यापीठ' तथा आंध्रप्रदेश के अन्तर्गत 'विपश्यना अन्तरराष्ट्रीय साधना केन्द्र' की स्थापना की गई है जो उनके निर्देशन में संचालित हैं ऐसा माना जाता है कि योग्य अधिकारी व्यक्ति से ही विपश्यना का सूक्ष्मदर्शन या अभ्यास क्रम प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि विपश्यना केवल दार्शनिक सिद्धान्त नहीं है, वह तो अपने जीवन में सत्य को क्रियान्वित करने का साधन है, जिसकी फल-निष्पत्ति अभ्यास से ही होती है। केवल तात्त्विक चर्चा एवं विश्लेषण से महत्त्वपूर्ण कुछ भी नहीं पाया जा सकता है। ऐसा होते हुए भी विपश्यना के स्वरूप का प्रारंभिक तत्त्व या रूपरेखा जिज्ञासु साधकों को प्राप्त हो, यह अपेक्षित है। इसके स्वरूप का सम्यक् बोध विपश्यना के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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