________________
खण्ड : अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
अभिमत है कि जिस अवस्था या आसन से अभ्यस्त हो, जिसका भली-भाँति अभ्यास किया हो, जिसमें ध्यान का उपघात न हो, ध्यान में बाधा उपस्थित न हो उसी आसन से साधक खड़े, बैठे या सोते हुए ध्यान कर सकता है। सभी देश, काल और अवस्थाओं में संयमी साधकों ने केवलज्ञान प्राप्त किया है। इसलिए ध्यान में भी देशकाल आदि का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। योग की सुस्थिरता ही एकमात्र शर्त है। जहाँ मनोयोग स्थिरता प्राप्त करे वही उपयुक्त है। ध्यान के लिए वाचना, पृच्छा, आवृत्ति, चिन्तन, क्रिया और आलम्बन ये आवश्यक हैं।'
ध्यान पर आरोहण करने के लिए यहाँ जिन-जिन के अभ्यास को आवश्यक बताया गया है उन पर चिन्तन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि उपाध्याय यशोविजय ध्यान से पूर्व तत्त्वाभ्यास को आवश्यक मानते थे। शास्त्र के अर्थ को असंदिग्ध बनाने हेतु पृच्छा, उसकी स्थिरता हेतु आवृत्ति, सूक्ष्म अर्थ को आत्मसात् करने हेतु अनुचिन्तन आवश्यक है। सद्ज्ञान के अनुरूप जीवन में सत् क्रियाशीलता भी हो, यह भी आवश्यक है। जैसे मजबूत यष्टिका आदि आलम्बन के सहारे पुरुष विषम-ऊबड़ खाबड़ स्थान पर भी आरोहण कर सकता है, उसी प्रकार सूत्र आदि के आलम्बन को लेकर योगी उत्तम ध्यान रूपी मंजिल पर आरूढ़ हो सकता है। यहाँ आलम्बन शब्द का प्रयोग ध्यान को जिस ध्येयबिन्दु पर एकाग्र किया जाय उस अर्थ में नहीं है किन्तु सहारे या सहयोग के अर्थ में है। आलम्बन का आदर करने से रुचिपूर्वक उसे साध लेने से ध्यान में आने वाले विघ्न नष्ट हो जाते हैं। ध्यान रूपी पर्वत पर आरोहण करते हुए योगी का पतन नहीं होता।
भयान के चार भेदों का निरूपण :
ग्रन्थकार ने आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान पर आधारित धर्मध्यान के भेदों को सूचित किया है। आज्ञा का विश्लेषण करते हुए लिखा है - नय, भंग तथा . प्रमाण से समृद्ध-सिद्ध हेतुओं तथा उदाहरणों से युक्त अप्रमाण के कलंक से विरहित जिनेन्द्र देव की आज्ञा का ध्यान करना चाहिए। यह धर्मध्यान का आज्ञा-विचय नामक प्रथम भेद है। 7. वही, गा. 28-31 8. वही, गा. 32-33
wwwwwwwwwwwwwwwws
5
Mmmmmmmmmmmmmmm
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org