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खण्ड : अष्टम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ग्रन्थकार ने सबसे पहले अध्यात्म पर जोर दिया है। सच्छास्त्रों के परिशीलन से मन परिष्कृत होता है। ग्रन्थकार ने विभिन्न शास्त्रों के तत्त्वों का संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हुए सर्वज्ञ प्रभु द्वारा भाषित तत्त्वों में आस्थाशील होने की प्रेरणा दी है। उन्होंने लिखा है कि वीतराग प्रभु असत्य भाषण नहीं करते। वे हेतु, युक्ति, तर्क, न्यायविरुद्ध उपदेश नहीं देते, जो उनके वाक्यों में विश्वास नहीं करते, जो महामोह द्वारा ग्रसित हैं जो शास्त्र को अपने आगे रखता है, सम्मान देता है, अपना मार्गदर्शक मानता है, एक प्रकार से वीतराग प्रभु को ही अपना पथदर्शक समझता है ; वैसा समझने वाले निश्चय ही समस्त सिद्धियों को प्राप्त करते हैं।24
एनयोग शुद्धि :
ग्रन्थकार ने ज्ञानयोग शुद्धि नामक दूसरे अधिकार में ज्ञानयोग की चर्चा करते हुए लिखा है- शास्त्रों द्वारा दर्शित साधना मार्ग पर चलता हुआ निर्मल बुद्धि पुरुष साधना की विशिष्ट उपलब्धि हेतु ध्यानयोग का प्रयोग करे अर्थात् वह सद्ज्ञान का अवलम्बन लिये हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाये।25 सद्ज्ञान का साहचर्य योगसाधना में निश्चय ही बड़ा उपकारक सिद्ध होता है। क्रियायोग शुद्धिः
तीसरे अधिकार में क्रियायोग की विशुद्धि की चर्चा है। क्रियायोग का तात्पर्य शास्त्राध्ययन से प्राप्त ज्ञानपूर्वक आत्मजागरूक भाव से क्रियाकलाप में संलग्न रहना है। वहाँ व्यक्ति का मन उन क्रियाओं में आसक्त या ग्रस्त नहीं होता। साधक अपने आप में जो सिद्ध करना चाहते हैं, वह तभी साधित हो सकता है जब वे शान्तचित्तपूर्वक क्रियाशील हो।26 जो चैतसिक शान्ति के साथ क्रियाशील होते हैं वे क्रिया में लिप्त नहीं होते। आगे उन्होंने कहा है कि शान्त भाव सहित अनासक्त चित्त के साथ जो क्रियाशील होते हैं उनका आत्मबल उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार अन्न में चावल का छिलका या भूसा तथा माँजने से ताँबे की कालिमा नष्ट हो जाती है।27 24. अध्यात्मोपनिषद् गा. 1.13-14 25. वही, गा. 2.1 26. वही, गा. 3.12 27. वही, गा. 3.21 ~~~~~~~~~~~~~~~ 13 ~~~~~
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