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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
साम्ययोग :
इस अधिकार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने बड़े ही अन्तःस्पर्शी शब्दों में कहा है कि जो ज्ञान और क्रिया रूप दो अश्वों से युक्त साम्यरूप रथ पर आरूढ़ होकर मोक्षमार्ग की ओर गतिशील होता है वह गाँवों में, नगरों में विघ्नरूपी काँटों से उत्पन्न होने वाली पीड़ा को, जिससे पादरक्षिका रहित - जूते न पहना हुआ व्यक्ति पीड़ित होता है, नहीं पाता। वैसा योगी आत्मप्रवृत्ति में अत्यन्त जागरूक रहता है तथा परप्रवृत्ति में वह बहरे, अंधे या गूंगे की तरह रहता है अर्थात् न उन्हें सुनता है, न उन्हें देखता है और न उनके सम्बन्ध में बोलता ही है । वह सदा परम ज्ञान एवं परमानन्दमय पद की दिशा में समुद्यत रहता है। वह लोकोत्तर - विलक्षण साम्यभाव को प्राप्त करता है। 28
शास्त्राध्ययन द्वारा समर्जित सद्ज्ञान और उस ज्ञान द्वारा किये गये क्रियाकलाप और उनसे उत्पन्न समत्वभाव वास्तव में आत्मश्रेयस् के अनन्य उपादान हैं। उन्हें स्वायत्त कर लेने पर ध्यान योगी में आन्तरिक ऊर्जा का स्रोत फूट पड़ता है जिसके सहारे वह जीवन का परम लक्ष्य साधने में समर्थ हो जाता है ।
ज्ञानस:
खण्ड : अष्टम
उपाध्याय यशोविजय द्वारा रचित 'ज्ञानसार' में बत्तीस अष्टक हैं। आठ श्लोकों में रचित प्रकरण अष्टक कहे जाते रहे हैं। इन अष्टकों में क्रमश: ( 1 ) पूर्णता ( 2 ) लग्नता ( 3 ) स्थिरता (4) मोहत्याग (5) ज्ञान (6) शम ( 7 ) इंद्रिय जय ( 8 ) त्याग (9) त्रिया ( 10 ) तृप्ति ( 11 ) निर्लेप ( 12 ) निस्पृहा ( 13 ) मौन ( 14 ) विद्या ( 15 ) विवेक ( 16 ) माध्यस्थ ( 17 ) निर्भयता (18) अनात्मसंसार ( 19 ) तत्त्वदृष्टि (20) सर्व-समृद्धि ( 21 ) कर्मविपाक ( 22 ) भवोद्वेग (23) लोकसंज्ञा ( 24 ) शास्त्र (25) परिग्रह (26) अनुभव (27) योग ( 28 ) नियाग ( 29 ) भावपूजा (30) ध्यान (31) तप ( 32 ) सर्व नयामय ।
इन सभी अष्टकों में विविध अपेक्षाओं से आत्मा के परिशोधन एवं परिमार्जन के उपायों का विवेचन किया गया है, जो ग्रन्थकार के गहन अध्ययन और प्रगाढ़ वैदुष्य का सूचक है। उन्होंने ध्यानाष्टक में ध्यान का विवेचन किया है। लिखा है - ध्याता,
28. वही, गा. 4.1-2
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