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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड : अष्टम
अष्टपदी की भी रचना की थी।
भगवान ऋषभदेव के स्तवन के रूप में 'आनन्दघन पदावली' का पहला पद विशेष रूप से अनुशीलन करने योग्य है। उन्होंने लिखा है
जिनेश्वर ऋषभदेव मेरे प्रियतम हैं, मुझे और किसी कान्त या प्रियतम की चाह नहीं है। यदि वे मुझ पर प्रसन्न हो जाते हैं तो मेरा संग-साहचर्य कभी नहीं छोड़ते
और उनका मेरे साथ संबंध आदि सहित तो होगा, किन्तु वह अन्तरहित होगा, वह मिटेगा नहीं। इस संसार में प्रेम का नाता तो सभी जोड़ते हैं, किन्तु वह प्रेम वास्तविक प्रेम नहीं है- वास्तविक प्रेम तो वह है, जो सभी प्रकार की उपाधियों से वर्जित, भौतिक अभीप्साओं से, पदार्थों से मुक्त हो। मेरा प्रेम संबंध लो प्रभु के साथ निरुपाधिक हैकिन्हीं भी सांसारिक अभिलाषाओं से बंधनों से वह विमुक्त है, कोई प्रेयसी अपने पति के मरण प्राप्त कर लेने पर इस आशा के साथ कि उसका पति के साथ शीघ्र ही मिलन हो, उसकी चिता के साथ सती हो जाती है।
कोई पत्नी पति को प्रसन्न करने के लिए उन तप करती है और समझती है देह को परिताप देने से प्रियतम प्रसन्न होंगे। पति को इस प्रकार अनुरंजित करने में मेरी मानसिकता नहीं है, यह तो दैहिक मिलन की बात है, कई कहते हैं यह सांसारिक संबंध तो प्रभु की लीला है, किन्तु निर्दोष, निरंजन, निर्मल प्रभु में यह लीला घटित नहीं होती-क्योंकि यह लीला दोषपूर्ण है। अपने प्रियतम में समर्पण रूप पूजन का परिणाम चित्त की विशुद्धि है, चैतसिक विशुद्धिजनित एकाग्रता है, जो कभी खण्डित नहीं होती। जो निष्कपट-निश्चलभाव से आत्मा को परमात्मा में समर्पित कर देता है वह तो मोक्ष की ओर ले जाने वाली पगडण्डी पर चल पड़ता है।30
योगिवर्य ने परमात्मपद प्राप्त प्रभु ऋषभ के प्रति समर्पण की उदग्र भावना का परिणाम चित्त की प्रशान्ति के रूप में घटित होना बतलाया है, यह भक्तियोग में अध्यात्म योग, ध्यान योग को ढाल देने का एक विलक्षण उपक्रम है।
सामान्यत: भक्त और योगी में अन्तर माना जाता है। भक्ति में समर्पण की प्रधानता होने से ज्ञान का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं, ऐसी मान्यता है। अतएव वहाँ 30. आनन्दघन पदावली श्री ऋषभजिन स्तवन -1 wrwwwwwwwwwwwwww 18 wwwwwwwwwwwwwwww
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