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खण्ड : अष्टम
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भारतवर्ष में आतिथ्य का बड़ा महत्त्व रहा है। जब कोई भी अतिथि कहीं आता है तो उसका सत्कार - सम्मान किया जाता है । उसे बैठने हेतु आसन दिया जाता है, उसके चरण प्रक्षालित किये जाते हैं और मधुपर्क भेंट किया जाता है । ग्रन्थकार ने पूजा योग्य पदार्थों को बड़े ही सुन्दर रूप में रूपक के आधार पर आध्यात्मिक ढाँचे में ढाला है। आत्मा रूपी अतिथि का तो शील, शुद्ध शिष्टाचार, शुद्धाचार, दमनशीलता, तितिक्षा, आध्यात्मिक उल्लास आदि उत्तम भावों द्वारा ही पूजन किया जा सकता है।
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्यानयोगी अपनी ध्यान रूपी एकाग्रता में महान् अतिथि के रूप में शुद्ध आत्मभाव को स्वीकृत कर उसके पवित्र गुणों के स्मरण चिन्तन - अनुचिन्तन द्वारा अनुप्राणित होता है।
आत्मा और परमात्मा में अभेदबुद्धि की अनुभूति कराने हेतु ग्रन्थकार ने आगे इस प्रकार वर्णन किया है- आत्मा और परमात्मा में जो भेदबुद्धिजनित विवाद उत्पन्न हुआ, ध्यान रूपी संधिकर्ता ने अविलम्ब ही उसे दूर कर दोनों में अभेद एकत्व करवा दिया | 21
दो राजाओं में, विशिष्ट जनों में अथवा किन्हीं दो व्यक्तियों में पारस्परिक मतभेद के परिणाम स्वरूप विवाद उत्पन्न हो जाता है। दोनों परस्पर खिंचे हुए होते हैं। इसलिए विवाद मिट नहीं सकता । किन्तु कोई बीच का संधिकारक योग्य पुरुष आकर दोनों का भेद मिटा देता है और उनमें परस्पर एकता घटित कर देता है । ग्रन्थकार
ध्यान को मध्यस्थ, सुयोग्य, संधिकारक पुरुष के रूपक द्वारा बड़े ही समीचीन रूप में व्याख्यात किया है। ध्यान से आत्मा-परमात्मा का भेद मिट जाता है क्योंकि विशुद्ध भाव की दृष्टि से उनमें कोई भेद है ही नहीं । किन्तु संसारी जीव अज्ञानवश अपने को परमात्मा से भिन्न मानता है। ध्यान इस अज्ञान के आवरण को मिटा देता है और जीव को अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप के चिन्तन की दिशा की ओर मोड़ देता है । वैसा होने पर आत्मा के शुद्ध स्वरूप का उसे भान हो जाता है क्योंकि विशुद्ध आत्मा ही परमात्म रूप है।
21. वही, 5.17-11
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