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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड: अष्टम
राग-द्वेष, कषाय आदि से पीड़ित प्राणी ऐहिक और पारलौकिक विविध प्रकार के कष्ट पा रहे हैं। इस पर एकाग्रतया चिन्तन करना, अपने चिन्तन को केन्द्रित करना अपायविचय नामक दूसरा भेद है।
भिन्न-भिन्न योगों के प्रभाव से उत्पन्न प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकार के बन्धों के कर्मों के शुभ या अशुभ विपाक पर एकाग्रचिन्तन करना धर्मध्यान का विपाकविचय नामक तीसरा भेद है।
उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य युक्त द्रव्य तथा पर्यायों से परिव्याप्त लोकाकाश का चिन्तन करना संस्थान विचय नामक चौथा धर्म ध्यान है।
साधक यह अनुचिन्तन करे कि आत्मा ही इस लोक में अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। तत्त्वत: यह आत्मा रूप रहित, नाश रहित है। उसका लक्षण उपयोग है।
__यह संसार-सागर अत्यन्त दुष्कर है। यह जीव के अनेक जन्मों के कर्मों के परिणाम स्वरूप जन्म, वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी पानी से भरा हुआ है। उसमें मोहरूपी बड़े-बड़े आवर्त या भँवर हैं। यह कर्म विपाक रूपी बड़वाग्नि के कारण अत्यन्त भयंकर है। भोग-तृष्णा रूपी आशाओं के अत्यन्त प्रचण्ड वायु से आन्दोलित है। क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार पाताल कलशों से उसमें जल उछल रहा है। यह पाप रूपी समुद्र हिंसा आदि अशुभ विकल्प रूपी तरंगों से व्याप्त है। इसके कारण हृदय में इन्द्रियविषयों से जनित विकारों का महाप्रभाव उठ रहा है जिससे यह दुर्गम, दुस्तीर्ण हो गया है। विषय-सुख की अभिलाषा रूपी लताओं की परम्परा से युक्त इसमें ज्वार उठता है। इसका विषय-वासना रूपी उदर-मध्य भाग करोड़ों उपायों से भी पूर्ण न हो सके ऐसा है। इसके ऊपर दुर्दिनवत् यह अज्ञान बादलों सदृश आच्छादित है। विविध प्रकार की विपत्ति-आपत्ति रूप बिजलियों के गिरने से यह अत्यन्त भयोत्पादक है। दुराग्रह रूपी दुष्ट वायु उस पर गतिशील है जिससे हृदय काँप उठता है, विविध व्याधियों एवं रोग रूपी मत्स्यों, कच्छपों से यह व्याप्त है। राग-द्वेष-मोह आदि दोषरूपी पर्वतों के कारण यह अत्यन्त दुर्गम, दुस्तर एवं दुर्लंघ्य है। इस प्रकार के अत्यन्त भयंकर संसारसागर का एकाग्रचित होकर चिन्तन करना इस ध्यान के अन्तर्गत है।' 9. वही, गा. 35-45
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