________________
खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
अध्यात्म रस का अनुभव करता है।102
उक्त विवेचन का सार यह है :
आज्ञा-विचय से वीतराग भाव की प्राप्ति होती है। अपाय-विचय से राग-द्वेष और मोह और उनसे उत्पन्न होने वाले दु:खों से मुक्ति मिलती है। विपाक-विचय से दुःख कैसे होता है, क्यों होता है, किस प्रवृत्ति का क्या परिणाम होता है ? इनकी जानकारी प्राप्त होती है। संस्थान विचय से मन अनासक्त बनता है। विश्व की उत्पाद-व्यय और ध्रुवता जान ली जाती है, उसके विविध परिणाम-परिवर्तन जान लिये जाते हैं, तब मनुष्य का मन स्नेह, घृणा, हास्य, शोक आदि विकारों से विरत हो जाता है।
धर्मध्यान चित्त-निरोध या चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास है। शुक्लध्यान में यह अभ्यास परिपक्व हो जाता है। मन चंचल है। इन्द्रियाँ उसे प्रेरित करती हैं, इसलिए उसकी चंचलता और बढ़ जाती है। वह समूचे विश्व की परिक्रमा करने लग जाता है। ध्यान का कार्य उस भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटा कर किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है।
। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, त्यों-त्यों मन शान्त और निष्प्रकम्प हो जाता है। शुक्ल ध्यान के अन्तिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध, पूर्ण संवर या समाधि प्राप्त हो जाती है। चलध्यान का अधिकारी :
वज्र वृषभनाराच संहनन वाले और पूर्वश्रुत के धारक मुनि ही शुक्ल ध्यान करने में समर्थ होते हैं। अल्पसामर्थ्य वाले मनुष्यों के चित्त में किसी भी तरह शुक्ल ध्यान के योग्य स्थिरता नहीं आ सकती।
इन्द्रियजन्य विषयों के सेवन से व्याकुल बना हुआ मनुष्यों का मन स्वस्थ, शान्त एवं स्थिर नहीं रह पाता। यही कारण है कि अल्प सत्त्व वाले प्राणियों को शुक्ल ध्यान करने का अधिकारी नहीं माना गया है।
वर्तमान में न तो वज्रऋषभनाराच संहनन वाले हैं, न ही पूर्वधर। अत: कोई 102. वही, 10.16-17 ~~~~~~~~~~~~~~ 45 ~~~~~~~~~~~~~~~
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org