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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
जब ध्यानकर्ता तीन योगों में से किसी एक योग का आलम्बन करके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय का चिन्तन करता है, तब 'एकत्व अविचार' ध्यान कहलाता है।
जैसे मन्त्रवेत्ता मन्त्र के बल से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हुए विष को एकदेश स्थान में लाकर केन्द्रित कर देता है, उसी प्रकार योगी ध्यान के बल से तीनों जगत् में व्याप्त अर्थात् सर्वत्र भटकने वाले मन को अणु पर लाकर स्थिर कर लेते हैं ।
जलती हुई आग में से ईंधन को खींच लेने या बिल्कुल हटा देने पर थोड़े ईंधन वाली अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार जब मन को विषय रूपी ईंधन नहीं मिलता है, तो वह भी स्वतः ही शान्त हो जाता है । 1
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शुक्ल ध्यान का फल :
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जब ध्यान रूपी जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित होती है तो योगीन्द्र के समस्त चारों घातिकर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं, यही बात 'प्रशमरतिप्रकरण' में कही गई है। शुक्ल ध्यान में आरूढ़ योगी विश्व भर के जीवों के कर्मबन्धन को तोड़ डालने में समर्थ होता है, यदि ऐसा हो सके तो 115 और क्या हो सकती है।
ध्यान की महिमा इससे अधिक
'योगशास्त्र' के बारहवें अध्याय के प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने लिखा है कि श्रुतज्ञानमय शास्त्र रूपी समुद्र से और गुरुजन के मुख से योग के संदर्भ में मैंने जो अधिगत किया उसका यहाँ भली-भाँति दिग्दर्शन कराया है। अब अपने अनुभव से जो मैंने प्राप्त किया उसका यहाँ विवेचन करूंगा ।
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अपनी अनुभूति के परिणामस्वरूप मन के संदर्भ में जो उन्हें विशेष तथ्य आत्मसात् हुए उसका उन्होंने मन की विभिन्न दशाओं या भेदों के रूप में निरूपण किया है । मन ही साधना का मुख्य साधन है । अत एव उसी को उद्दिष्ट कर उनका प्रस्तुत विवेचन है।
113. वही, 11.15-20 114. वही, 11.21
115. प्रशमरति प्रकरण 264 116. योगशास्त्र 12.1
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