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यशोविजय और आनन्दघन के साहित्य में ध्यानसाधना
खण्ड:- अष्टम
यशोविजय और आनन्दघन के ४. साहित्य में ध्यानसाधना
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खण्ड : अष्टम
उपाध्याय यशोविजय :
उपाध्याय यशोविजय जैन विद्या के क्षेत्र में एक ऐसे उच्च कोटि के विद्वान् हुए जिन्होंने विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलाई । उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर उपाध्याय यशोविजय का जन्म गुजरात में हुआ था । उनका जन्मस्थान कनीदा ग्राम है जो मेहसाना और पाटन के बीच विद्यमान है । इनके पिता का नाम नारायण तथा माता का नाम शोभागदे था। इनका बचपन का नाम जसवंत था । इनके भाई का नाम पद्मसिंह था । मुगलसम्राट् अकबर के प्रतिबोधक आचार्यश्री हीरविजय सूरि की शिष्य परम्परा में नयविजय नामक मुनि थे। उनसे प्रभावित होकर दोनों भाइयों ने उनका सान्निध्य प्राप्त किया।
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वि.सं. 1688 में आचार्य श्री हीरविजय सूरि के प्रपट्टधर आचार्य श्री विजय देव सूरि के पास दोनों भाई प्रव्रजित हुए । क्रम से उनके नाम यशोविजय, पद्मविजय रखे गये । यशोविजय की बुद्धि अत्यन्त प्रखर थी । अतः उन्हें विद्याध्ययन करने के लिए विद्यानगरी काशी भेजा गया। उन्होंने वहाँ तीन वर्ष रहकर षड्दर्शन, प्राचीन न्याय एवं नव्य न्याय, व्याकरण, साहित्य इत्यादि विषयों का गहन अध्ययन किया । वि.सं. 1718 में आचार्य श्री विजयप्रभ सूरि ने इनको उपाध्याय पद से अलंकृत किया। उपाध्याय यशोविजय ने अनेकान्तव्यवस्था, जैनतर्कभाषा, ज्ञान-बिन्दु, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश, स्याद्वाद कल्पलता, अध्यात्ममत- परीक्षा आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की । इनके अतिरिक्त उन्होंने 32 पदों में 32 द्वात्रिंशिकाओं की रचना की । उनमें से 21 वीं, 22 वीं एवं 24 वीं द्वात्रिंशिकाओं में उन्होंने आचार्य हरिभद्र सूरि प्रणीत 'योगदृष्टिसमुच्चय' में निरूपित आठ दृष्टियों का विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने
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