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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
उपाध्याय सकलचन्द्र की जन्म-भूमि के संबंध में ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक रूप में कुछ भी ज्ञात नहीं है। दन्तकथा या जनश्रुति के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ये गुजरात के अन्तर्गत सूरत के निवासी थे। इनका जन्म वैश्य जाति में हुआ। ये अत्यन्त आत्मार्थी थे। प्रसंगविशेष से प्रेरित होकर इनका वैराग्य भाव जागृत हो उठा, इन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार कर ली। ये उच्चकोटि के महान् साधक थे।
ध्यान और योग इनके प्रिय विषय थे। ‘ध्यान दीपिका' के परिशीलन और पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपाध्याय सकलचन्द्र की सर्वथा स्वतंत्र रचना हो, ऐसा नहीं है। इसमें जो अर्द्धमागधी की गाथाएँ आयी हैं वे अधिकांशत: आचार्य हरिभद्रसूरि रचित 'योगशतक' से ली गई हैं।
संस्कृत के कतिपय श्लोक आचार्य हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' और शुभचंद्र के 'ज्ञानार्णव' से लिये गये हैं। बाकी के श्लोक इनके द्वारा रचित हैं, यह देखते हुए इसे एक संकलनात्मक ग्रन्थ कहा जा सकता है। ध्यान दीपिका' में ध्यान संबंधी विवरण:
___'ध्यानदीपिका' में ध्यान की आवश्यक भूमिका के रूप में ज्ञान भावना, दर्शन भावना, चारित्र भावना और वैराग्य भावना का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् अनित्यादि बारह भावनाओं का विवेचन है। फिर इन्होंने मुमुक्षुओं को उनके हित की शिक्षा प्रदान करते हुए बतलाया है कि यदि काकतालीय न्याय से उत्तम गुणयुक्त मनुष्य जीवन प्राप्त हो गया हो तो व्यक्ति को सदैव उसे मोक्षमूलक साधनों द्वारा सफल करना
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काकतालीय न्याय संस्कृत में उदाहरणों के रूप में प्रयुक्त विधाओं में से एक है। जैसे कोई कौआ ताड़ के वृक्ष पर बैठा। ज्योंही उसका बैठना हुआ, ताड़ का फल गिर गया। साथ कौआ भी गिर पड़ा, ऐसा कभी संभावित नहीं था किन्तु संयोगवश हो गया। मनुष्य जीवन भी इसी प्रकार का है। कर्मों का आत्यन्तिक क्षय मोक्ष है। वह ज्ञान और चारित्र से होता है। ज्ञान निर्मल उज्ज्वल ध्यान से ही प्राप्त होता है। इस कारण जो मोक्षपथ के पथिक हैं उनके लिए ध्यान बड़ा हितकारी है। सम्यक्ज्ञान
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