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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
योग्य हैं क्योंकि सर्वज्ञ कदापि अन्यथाभाषी नहीं होते। उनकी आज्ञा को आधार मानकर इस ध्यान का विधान किया गया है।97 अपायविचय ध्यान :
जो लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होता है उसे उपाय कहा जाता है। यह उप+आय के मिलने से बना है। उप उपसर्ग सामीप्य का द्योतक है। आय उपलब्धि का द्योतक है। उपाय का विपरीत रूप अपाय है जो लक्ष्य को सिद्ध करने में बाधा विघ्न उत्पन्न करता है उसे अपाय कहा जाता है। अपाय शब्द अप+आय के मिलने से बना है। अप पृथक् या दूर करने का सूचक है। लक्ष्य से हटाने के कारण ही इसकी अपाय संज्ञा है। राग-द्वेष, क्रोध आदि कषाय, प्रमाद आदि विकारों से होने वाले कष्ट या दुर्गति आदि का जो साधनों में बाधक है, चिन्तन करना अपाय विचय ध्यान कहा जाता है।
ध्यान योग ऐहिक और पारलौकिक अपायों-विघ्नों के परिहार में, उनको मिटाने में तत्पर होता है। वह इस ध्यान का अवलम्बन लेकर पापकर्मों से सर्वथा निवृत्त हो जाता है।98
ध्यानरत साधक साधना में विघ्नोत्पादक तत्त्वों का चिन्तन करता है तब उसके मन में उन्हें नष्ट करने की सहज रूप में प्रेरणा जागृत होती है क्योंकि वह सोचता है कि यदि ये अपाय नहीं मिट पाये तो वह साधना से स्खलित हो सकता है। इसलिए वह उनका परिहार या परिवर्तन करता है। यों वह पापात्मक प्रवृत्तियों से सर्वथा पृथक् हो जाता है। क्योंकि ध्यान तप का ही एक उज्ज्वल रूप है। तपश्चरण से तो कर्मों का निर्जरण होता ही है। विषाकविचय ध्यान:
विपाक का अर्थ परिणाम, परिपाक या फल है। कर्मों का संचय ही संसार है और अपचय ही मोक्ष है। क्षण-क्षण में विभिन्न कर्मों का फल भिन्न-भिन्न रूप में उदित होता है। इस तथ्य का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है वह विपाकविचय ध्यान कहा जाता है। 97. वही, 10.8.9 98. वही, 10.10-11 ~~~~~~~~~~~~~~~ 43 wwwwwer
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