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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
पर्यायविषयक ध्यान एकत्व श्रुत अविचार ध्यान कहलाता है।
पहला और दूसरा शुक्ल ध्यान सामान्यत: पूर्वधर मुनियों को ही होता है, परन्तु कभी किसी को पूर्वगत श्रुत के अभाव में अन्य श्रुत के आधार से भी हो सकता है। पहले प्रकार के शुक्ल ध्यान में शब्द, अर्थ और योगों का आवर्तन-परिवर्तन बंद हो जाता है। प्रथम शुक्ल ध्यान में एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों का चिन्तन होता है, दूसरे में एक ही पर्याय को ध्येय बनाया जाता है।106
पहले में पृथक्त्व है, इसलिए वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है इसलिए वह अविचार है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम है, दूसरे में असंक्रम। पृथक्त्व-वितर्क-सविचारी अर्थात् भेद प्रधान ध्यान का अभ्यास दृढ़ होता है, तब एकत्व वितर्क अविचारी अर्थात् अभेदप्रधान ध्यान होता है। इसके अभ्यास से मोह क्षीण होता है, उसके साथ-साथ ज्ञान और दर्शन के आवरण तथा अन्तराय कर्म क्षीण हो जाते हैं। आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग और अनन्त शक्ति सम्पन्न बन जाता है।
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सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति:
निर्वाण-गमन का समय सन्निकट आ जाने पर केवली भगवान मनोयोग और वचनयोग तथा स्थूल काययोग का निरोध कर लेते हैं, केवल श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही शेष रह जाती है, तब जो ध्यान होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नामक शुक्ला ध्यान कहलाता है।107 उच्छित्र क्रिया अप्रतिपाति :
__ पर्वत की तरह निश्चल केवली भगवान जब शैलेशीकरण को प्राप्त करते हैं, उस समय होने वाला शुक्ल ध्यान उच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति कहलाता है।108
106. वही, 11.7 107. वही, 11.8 108. वही, 11.9
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