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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्यानयोगियों के लिए पठनीय है।
इस प्रकाश के अन्त में पदस्थ मूलक ध्यान के वैशिष्ट्य का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि प्रमुख गणधरबोधित प्रवचन रूपी समुद्र से उद्धृत किये हुए, निकाले हुए ये पदस्थ ध्यान के विविध उपक्रम तत्त्व रूपी रत्न हैं। ये सैकड़ों भवों में संचित कर्मक्लेश का विनाश करते हैं। ये मेधावी-प्रबुद्ध ध्यान-योगी साधकों के हृदय रूपी दर्पण को उल्लसित प्रकाशित करें।86
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यस्थ ध्यान :
धर्मप्रवचन या धर्मदेशना प्रदान करने वाले तीर्थंकरों के व्यक्तित्व की अपनी विलक्षणता और असाधारणता है। वे अनेक अतिशयों से विभूषित होते हैं। उनके व्यक्तित्व में जहाँ सर्वज्ञत्व की दिव्य आभा उद्भासित होती है, वहाँ उनके प्रभाव से परस्पर वैरभाव रखने वाले प्राणी भी उनकी परिषद् या समवसरण में उपस्थित होते हैं। आध्यात्मिक दिव्य छटा, प्रभा, ज्योति से वे अलंकृत होते हैं। वातावरण को सहज ही उनके व्यक्तित्व से आध्यात्मिक दिव्यता प्राप्त होती है। यह उनका भावात्मक, प्रेरक, उद्बोधक रूप है जो अध्यात्म चेतना से आपूरित है।
___ उनके इस आध्यात्मिक, अभौतिक, पारमार्थिक व्यक्तित्व का चिन्तन करना, इस पर अपने ध्यान को एकाग्र करना रूपस्थ ध्यान है। ग्रन्थकार ने उस ध्यान के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है- जो साधक मुक्तिलक्ष्मी के सम्मुख जा पहुँचे हैं, जिन्होंने समग्र चारों घातिया कर्मों का समूल ध्वंस कर दिया है, देशना देते समय देवरचित तीन प्रतिबिम्बों के कारण जो चार मुख वाले दिखाई देते हैं, जो तीन लोक के प्राणिमात्र को अभयदान देने वाले हैं तथा चन्द्रमण्डल के सदृश तीन उज्ज्वल छत्रों से सुशोभित हैं, सूर्यमंडल की प्रभा का तिरस्कार करने वाला भामंडल जिनके पीछे जगमगा रहा है, दिव्य दुंदुभि के निर्घोष से जिनकी आध्यात्मिक सम्पदा का गान किया जा रहा है, जो गुंजार करते हुए भ्रमरों की झंकार से शब्दायमान अशोक वृक्ष से सुशोभित हैं, सिंहासन पर आसीन हैं, जिनके दोनों ओर चामर ढुलाये जा रहे हैं, वन्दन करते हुए सुरों और असुरों के मस्तकों के 86. वही, 8.81 ~~~~~~~~~~~~~~~ 39 ~~~~~~~~~~~~~~~
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