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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
पदस्थ ध्यान के एक रूप का विश्लेषण करते हुए लिखा है
“ध्यान योगी नाभिकन्द पर विद्यमान षोड़शपत्रयुक्त प्रथम कमल की परिकल्पना करे। उसके प्रत्येक पत्र पर अ, आ, इ, ई आदि सोलह स्वरों की पंक्ति भ्रमण कर रही है, ऐसा सोचे।"
"फिर वह हृदयस्थित चतुर्विंशति पत्र युक्त कर्णिका युक्त द्वितीय कमल का चिन्तन करे। ऐसा सोचे कि क से य तक चौबीस व्यञ्जन उन पत्रों पर स्थित हैं। मकार कर्णिका पर विद्यमान है।"
"फिर अष्ट दल युक्त तीसरे कमल की मुख में परिकल्पना करे। उन आठ पत्रों में अवशेष आठ य से ह तक व्यञ्जन की परिकल्पना करे। इस वर्णमाला को मातृका कहा जाता है। इसी पर श्रुतज्ञान अवस्थित है। इसका जो ध्यानयोगी चिन्तन करता है वह श्रुतज्ञान में पारंगत हो जाता है।"72
मातका ध्यान का फल :
मातृका ध्यान का विशेष फल बताते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि ये वर्ण अनादि काल से स्वत: सिद्ध हैं। जो विधिपूर्वक इनका ध्यान करता है, स्वल्पकाल में ही उसके संचित कर्म विध्वस्त हो जाते हैं तथा उसमें विविध विषय मूलक ज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाता है।73
वर्ण, तदात्मक शब्द, पद आदि पर भारतीय दर्शन में बड़ा चिन्तन और मनन हुआ है। वे भाषा मात्र से ही जुड़े हुए नहीं हैं, उनके साथ निगूढ़ दार्शनिक एवं तात्त्विक तथ्य भी जुड़ा हुआ है। महान् वैयाकरण भर्तृहरि ने 'वाक्यपदीयं' नामक अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में ब्रह्मकाण्ड का प्रारम्भ इसी तत्त्व के प्रतिपादन के साथ किया है
अनादि-निधनं ब्रह्म शब्द-तत्त्वं तदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थभावेन, प्रक्रिया जगतो यतः।।
यह शब्द तत्त्व अनादि अनन्त है, अपर-अविनश्वर या विकार रहित है, जगत् 72. वही, 8.2-4 73. वही, 8.5 ~~~~~~~~~~~~~~~ 37 ~~~~~~~~~~~~~~~
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