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आचार्य शुभचन्द्र, भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
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ग्रन्थ के 15 वें सर्ग में वृद्धसेवा की ग्राह्यता पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। उन्होंने सर्ग के प्रारम्भ में ही लिखा है ऐसा करने वाले के ऐहिक और पारलौकिक दोनों विशुद्ध - सिद्ध हो जाते हैं। उसके भावों में तत्क्षण शुद्धता का समावेश हो जाता है। उसके विद्या और विनय की वृद्धि होती है ।
जो पुरुष वृद्धजनों की सेवा करते हैं उनकी कषाय रूपी अग्नि रागादिसहित शान्त हो जाती है । उनके चित्त में प्रसन्नता या निर्मलता का आविर्भाव होता है । 3 आचार्य शुभचन्द्र साधक के व्यक्तित्व को आचार तथा दैनंदिन व्यवहार की दृष्टि से परिष्कृत और परिमार्जित रूप में देखना चाहते थे। क्योंकि व्यक्तित्व में इस प्रकार की सात्त्विकता या निर्मलता आये बिना ध्यान-साधना की पवित्र भूमि पर पहुँच पाना निश्चय ही कठिन होता है।
आचार्य ने केवल ध्यानविषयक सिद्धान्तों की पांडित्यपूर्ण शैली में विवेचना करना ही पर्याप्त नहीं समझा वरन् उनका अभिप्रेत यह था कि लोग उनके इस ध्यानयोग विषयक महान् ग्रन्थ से प्रेरित होकर जीवन में उन सिद्धान्तों के अनुरूप ध्यान की आराधना कर प्रशान्त भाव का साक्षात्कार करें। क्योंकि वही जीवन का परम लक्ष्य या प्राप्य है।
खण्ड : षष्ठ
इसी क्रम में आगे 16वें सर्ग में परिग्रह - त्याग का बड़ा ही मार्मिक विश्लेषण किया है। क्योंकि इस संसार में धन, वैभव, ऐश्वर्य, सम्पत्ति आदि के रूप में परिग्रह एक ऐसा आकर्षण है जिससे छूट पाना बहुत कठिन है । जीवन को अशाश्वत या क्षणभंगुर मानता हुआ भी, विपुल सम्पत्ति का स्वामी होकर व्यक्ति परिग्रह की अतृप्त पिपासा में अहर्निश इतना बँधा रहता है कि उससे वह छूट नहीं पाता । ध्यान-साधना तो वह विषय है जहाँ आत्म व्यतिरिक्त सभी भावों या परभावों से छूटना नितान्त आवश्यक है । उस ओर से साधक का ध्यान हटे, महान् उपदेशक इसलिए वैसे विषयों की परिहेयता का विशेष रूप से प्रतिपादन करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने परिग्रह की हेयता का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार नौका में पाषाण आदि का अत्यधिक भार लाद देने से गुणवान गुण या रज्जू से बद्ध नौका भी समुद्र में डूब जाती है, उसी प्रकार परिग्रह के भार से संयमी साधक भी जन्म-मरणमय संसार - सागर में निमग्न हो जाता है । 4
ज्ञानार्णव 15.1-2
वही, 16.1
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