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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
स्वभाव युक्त, कर्मलेप से विमुक्त, ऊर्ध्वगमन स्वभावयुक्त, स्वसंवेद्य, विभु-सिद्ध, सर्व संकल्पवर्जित परमात्मा के रूप में उत्तम ध्यान करता है, हे देव ! वह रूपातीत ध्यान है, मोक्ष का कारण है।117
आगे उन्होंने यह संकेत किया है कि जो देह, इन्द्रिय, मन और वाणी के ममत्व तथा अहंकार में संलग्न है, वैसा बहिरात्मा-बहिरात्म भाव युक्त, बहिर्मुखी व्यक्ति आपका दर्शन नहीं कर सकता।118
__ आचार्य भास्करनन्दि ने 'ध्यानस्तव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का जो वर्जन किया है वह विशेष रूप से समीक्षणीय है। उन्होंने सयोग केवली अवस्था में विद्यमान तीर्थंकर देव के परम ज्योतिर्मय दिव्य सर्वातिशयसमायुक्त स्वरूप को आलम्बन के रूप में स्वीकार कर किये जाने वाले ध्यान को पिण्डस्थ कहा है।
जैन ध्यान परम्परा के ऐतिहासिक विकास-क्रम की दृष्टि से भास्करनन्दि का 'ध्यानस्तव' एक प्रमुख कृति माना जा सकता है। इन्होंने अपने ग्रन्थ में आगम सम्मत चार ध्यान, उनके लक्षण, आलम्बन आदि की चर्चा की है वहीं पिंडस्थ आदि धर्मध्यान के भेदों का भी वर्णन किया है किन्तु जहाँ आचार्य शुभचन्द्र और हेमचन्द्र ने पिण्डस्थ ध्यान के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु के पिण्डात्मक रूप को गृहीत कर आग्नेयी आदि धारणाओं के रूप में व्याख्यात किया है, वहीं भास्करनन्दि ने भगवान के आध्यात्मिक वैभवमय स्वरूप को पिण्ड के रूप में परिलक्षित कर इस ध्यान को परिभाषित किया है। दोनों विधाओं में यही अन्तर है। ऐसा प्रतीत होता है कि भास्करनन्दि की दृष्टि आध्यात्मिकता के साथ अपेक्षाकृत अधिक जुड़ी थी। इसलिए उन्होंने पार्थिव आदि बाह्य प्रतीकों को पिण्ड के रूप में स्वीकार नहीं किया। साथ-ही-साथ उन्होंने साधक को अपने देहस्थ आत्मतत्त्व के परम पावन स्वरूप परमात्म-भाव की ओर भी प्रेरित किया है। साधक, प्रभु के - वीतराग देव के आध्यात्मिक शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करते समय अपनी आत्मा के निरावरण निर्मल स्वरूप की भी निश्चय दृष्टि से परमात्मभाव की समकक्षता का अनुचिन्तन करे।
117. 118.
वही, 29-36 वही,
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