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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
अन्त:करण में धर्म की विशुद्ध भूमिका को संप्रतिष्ठ करता है। यहाँ आचार्य हरिभद्र द्वारा 'योगविंशिका' में उद्घाटित-मोक्खेण जोगणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। परिसद्धो विन्नेओ ठाणाइगओ विसेसेण॥ यह तथ्य विशेष रूप से स्मरणीय है जिसमें धर्म की यही विशुद्ध पृष्ठभूमि सन्निहित है। 11. लोकभावना :
ग्रन्थकार ने लोक के षड्द्रव्यमय स्वरूप का द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दृष्टिकोण से विवेचन किया है। उसके अध:, मध्य, ऊर्ध्व स्वरूप का आख्यान किया है। साथही-साथ लोक के अनादिसिद्धत्व की भी चर्चा की है। 23
लोकभावना का अनुशीलन व्यक्तित्व-बोध की प्रेरणा देता है। 12. बोधिदुर्लभ भावना:
जीवन में सम्यक् बोधि को परम दुर्लभ तत्त्व बतलाया गया है। साधना के आध्यात्मिक उत्कर्षोन्मुख बीज की वही पवित्र भूमि है। जिस प्रकार उर्वर भूमि के अभाव में उत्कृष्ट बीज भी प्रस्फुटित नहीं होता, पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होने की तो बात ही कहाँ ? यही तथ्य सम्यक् बोध के साथ जुड़ा हुआ है। इसकी परम दुर्लभता का अनुचिन्तन साधक के मन में सम्यक्, पवित्र भाव को सदैव सुस्थिर बनाये रखता है, जिसके कारण साधक कभी सन्मार्ग को छोड़ता नहीं। ग्रन्थकार ने इस भावना पर बड़े ही सुन्दर रूप में प्रकाश डाला है।24
आचार्य हेमचन्द्र द्वारा किये गये द्वादश भावना के इस वर्णन से स्पष्ट है कि वे आध्यात्मिक योग की साधना में ध्यान की आराधना को कितना महत्त्वपूर्ण मानते थे। ध्यान की पोषक चार भावनायें :
ध्यान विषयक उक्त विवेचन के अनन्तर आचार्य हेमचन्द्र ने ध्यान की पोषक भावनाओं के रूप में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया है। 23. वही, 4.103-106 24. वही, 4.107-110 ~~~~~~~~~~~~~~~ 16 ~~~~~~~~~~
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