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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
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प्र. निर्जरा भावना :
संवर जहाँ आत्मप्रदेशों के साथ संपृक्त होने वाले कर्माणुओं का निरोधक है, वहीं निर्जरा तत्त्व पूर्वसंचित कर्मपुद्गलों का निर्जरण करने वाला है। यह तप:मूलक है। जैन सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के अनुसार ध्यान निर्जरा के अन्तर्गत एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिस पर जैन वाङ्मय में विविध रूपों में विवेचन एवं विश्लेषण हुआ है। ग्रन्थकार ने निर्जरा भावना का विस्तृत विवेचन किया है। उसके सकाम-अकाम आदि स्वरूपों का तथा अनशन, अवमौदर्य आदि भेदों का विशद विश्लेषण किया है। बाह्य और अभ्यन्तर तप के रूप में उसके सूक्ष्म मर्म का उद्घाटन भी किया है।
उन्होंने अन्त में लिखा है कि बाह्य और अभ्यन्तर तप रूप अग्नि के उद्दीप्त होने पर साधक कठिनाई से क्षीण किये जाने योग्य कर्मों को तत्काल जला डालता है, विध्वंस कर डालता है।21 कर्मक्षय ही आत्मा का परम लक्ष्य है।
To. धर्म भावना :
धर्म शब्द बड़ा ही व्यापक है। सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने उसका सम्यक् प्रतिपादन किया है। जो जीवन में उसका अवलम्बन कर क्रियाशील रहता है, वह संसार-सागर में निमज्जित नहीं होता। वह धर्म संयम, सत्य, शौच, शान्ति, ऋजुता, मृदुता आदि के रूप में भलीभाँति विवेचित हुआ है। वह कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि आदि की ज्यों मनोवांछित फल प्रदान करता है, जो साधक के लिए आत्मकल्याण रूप है। ग्रन्थकार ने इस आशय का बड़े ही सुन्दर रूप में विवेचन किया है।22
धर्म ही एकमात्र वह मूल तत्त्व है जिसे जीवन में क्रियान्वित करना साधक का परम लक्ष्य है। तप,योग ध्यान आदि उसी क्रियान्विति के विविध रूप हैं। धर्म के नाम से तथाकथित वैविध्यपूर्ण रूप में साधक विभ्रान्त न हो जाए इस हेतु इस भावना में उसके मन में यह जमाने का प्रयास किया गया है कि वह धर्म के उस शुद्ध स्वरूप को आत्मसात् करे जो आप्त, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग देव द्वारा विधि-निषेध आदि विधाओं के साथ समीचीन रूप में व्याख्यात हुआ है। यह भावानुचिन्तन साधक के
21. वही, 4.86-91 22. वही, 4.92-102
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