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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
किया है तथा क्रूर-कर्मा जनों के प्रति उपेक्षा भाव रखने के रूप में माध्यस्थ्य भावना का प्रतिपादन किया है।28
अन्त में, पुन: इस बात को दोहराया है कि इन भावनाओं द्वारा आत्मभावित होता हुआ गतिमान साधक टूटे हुए विशुद्ध प्रवाह को पुन: प्राप्त कर लेता है।29
आचार्य हरिभद्र ने 'षोड़शक प्रकरण' में मैत्र्यादि भावनाओं का स्वरूप बताते हुए कहा है कि अन्य प्राणियों के हित का विचार मैत्री है, अन्य प्राणियों के दु:ख को दूर करना करुणा है, अन्य प्राणियों के सुख में प्रसन्नता मुदिता तथा दूसरों के अविनय आदि दोषों का प्रतिकार करने में उदासीनता उपेक्षा है।30
महर्षि पतंजलि ने 'योगसूत्र' के समाधिपाद में समाधि के अनुरूप चैतसिक स्थिति के निर्माण हेतु अनेक विषयों का, साधनों का निरूपण किया है। उन्होंने चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए तत्त्वाभ्यास का प्रतिपादन करने के पश्चात्, चित्त-प्रसादन का वर्णन किया है। चैतसिक प्रसन्नता, निर्मलता, योगाभ्यास के प्रति उल्लासमय मनोवृत्ति आदि के लिए मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा को स्वीकार करने का उल्लेख किया है। ये चारों पूर्वोक्त मैत्री आदि भावनाओं के समकक्ष हैं, मैत्री शब्द का दोनों ही स्थानों पर उपयोग हुआ है। प्रमोद के स्थान पर सूत्रकार ने मुदिता लिखा है। प्रमोद
और मुदिता में अर्थसाम्य है। इसी प्रकार उपेक्षा, तटस्थता या मध्यस्थता या माध्यस्थ्य भाव एक ही आशय के द्योतक हैं।
पतंजलि के अनुसार इन चारों को स्वीकार करने से साधक का मन निर्विवाद, प्रसन्न और योग-साधना में समुल्लसित रहता है जिससे समाधिरूप परमलक्ष्य की दिशा में गतिशील साधक के मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं होता है।31
चार ब्रह्म विहार :
बौद्ध धर्म में उपसमानुस्सत्ति के रूप में चतुर्विध ब्रह्म विहार का विवेचन 28. वही, 4.120-121 29. वही, 4.122 30. षोड़शक प्रकरण 4.15 पत्र सं. 23, 24 31. योगसूत्र 1.33 ~~~~~~~~~~~~~~~ 18 ~~~~~~~~~~~
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