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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
हे सुधीजन ! यदि आपका चित्त भवभ्रमणजनित खेद से खेदित है, दु:खों से पराङ्मुख अर्थात् उनसे छूटना चाहता है, यदि वह अनन्त सुखों की ओर उन्मुख है, अनन्त, अपरिमित, आध्यात्मिक सुख प्राप्त करना चाहता है तो उत्तम भावनाओं के अमृत रस से परिपूर्ण मेरे शान्तसुधारस नामक ग्रन्थ का श्रवण, चिन्तन, अनुशीलन और मनन करो।36
प्रत्येक भावना पर पहले उन्होंने संस्कृत के छन्दों में विवेचन किया है तथा फिर विभिन्न राग-रागिनियों में गेयरूप में उन भावों को बड़े ही मधुर एवं आकर्षक रूप में निरूपित किया है। निर्जरा भावना के अन्तर्गत उन्होंने प्रायश्चित्त, वैयावृत्य, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग एवं ध्यान का उल्लेख करते हुए कहा है
शमयति तापं, गमयति पापं, रमयति मानसहंसम्। हरति विमोहं दूरारोहं तप इति विगताऽऽशंसम्॥
हे चेतन ! यह आन्तरिक तप आराधित किये जाने पर प्राणियों के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक परितापों, दु:खों का विध्वंस कर डालता है। जन्म-जन्मान्तर से संचित पापों को विच्छिन्न कर डालता है। मन रूपी मानसरोवर में आत्मा रूपी हंस को रमण कराता है। मन को आध्यात्मिक आनन्द से आपूरित कर देता है। जिसको मिटा पाना बहुत कठिन है ऐसे मोह को भी विनष्ट कर डालता है।7
चैतसिक निर्मलता, पवित्रता और विशुद्धता को निष्पन्न करने में भावनाओं का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। चित्त-प्रमार्जन के बिना ध्यान सिद्ध होना संभव नहीं है। यही कारण है कि विभिन्न आचार्यों और ग्रन्थकारों ने जहाँ अध्यात्म योग या आध्यात्मिक साधना का विवेचन किया है वहाँ उन्होंने किसी-न-किसी रूप में भावनाओं का भी अपने विवेचन में समावेश किया है। भावनाओं के अभ्यास से संस्फुरित, प्रेरित चित्त भूमि में ध्यान रूपी अमृत का बीज यदि बोया जाय तो वह बड़े ही भव्य, सौम्य रूप में अंकुरित, विकसित, पल्लवित, पुष्पित तथा सुफलित होता है।
36. वही, श्लोक 3 पृ. 2 37. वही, श्लोक 6 पृ. 49
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