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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव !34
भावनाओं पर अनेक जैन आचार्यों, सन्तों, चिन्तकों और मनीषियों ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है। भावनाओं के महत्त्व को आत्मसात् करने हेतु इसे 'भावनायोग' कहा गया है। ऐसा कहने का अभिप्राय यही है कि अध्यात्म योग के साथ साधक को जोड़ने में भावनाओं का चिन्तन, अनुचिन्तन, मनन, निदिध्यासन बड़ा ही उपयोगी है।
भावनाओं पर रचित साहित्य में उपाध्याय विनयविजय द्वारा संस्कृत में रचित 'शान्त सुधारस भावना' नामक ग्रन्थ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने इसमें द्वादश भावनाओं तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य चार भावनाओं का इस प्रकार 16 भावनाओं का बड़ी ही सरस एवं प्रसाद गुणोपपन्न भाषा में विवेचन किया है। उन्होंने अनेक छन्दों के अतिरिक्त विभिन्न राग-रागिनियों में भावनाओं का लालित्यपूर्ण शैली में इतना सुन्दर निरूपण किया है कि भावपूर्वक पढ़ने वाले, गाने वाले पाठक आत्मविभोर हो उठते हैं। उपाध्याय विनयविजय द्वारा वि.सं. 1723 में इस ग्रन्थ की रचना की गयी। इसके अध्ययन से प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार के हृदय में वैराग्य, तितिक्षा और आत्मसाधना के भावों की त्रिवेणी मानों छलछला रही हो। भावनाओं का अध्यात्म, निर्वेद और शान्तिप्रदायक योग के साथ कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है इसका बड़े सुन्दर शब्दों में विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है
स्फुरति चेतसि भावनया बिना, न विदुषामपि शान्तिसुधारासः। न च सुखं कृशमप्यमुना बिना, जगति मोहविषादविषाऽऽकुले॥
भावनाओं के परिशीलन के बिना विज्ञजनों के चित्त में भी शान्ति का अमृतमय रस संस्फुरित नहीं हो पाता। मोह और विषाद के विष से व्याप्त जगत् में उसके बिना कोई जरा भी आध्यात्मिक सुख का अनुभव नहीं कर सकता। इसी बात को उन्होंने आगे और अधिक प्रेरक शब्दों में उपस्थापित करते हुए कहा है
यदि भवभ्रमखेदपराङ्मुखं, यदि च चित्तमनन्तसुखोन्मुखम्।
शृणुत तत् सुधियः ! शुभभावनामृतरसं मम शान्तसुधारसम्॥ 34. परमात्म द्वात्रिंशिका 1 35. शान्तसुधारस भावना श्लोक 2, पृ. 1 ~~~~~~~~~~~~~~ 20 ~~~~~~~~~~~~~~~
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