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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
मानव एक भावनाप्रवण प्राणी है अतएव बाह्य पदार्थ, वस्तुएँ, स्थान आदि जिनके साथ ऐतिहासिक गरिमा जुड़ी रहती है, भावोद्वेलन की दृष्टि से अपना महत्त्व रखते हैं। यद्यपि ये जड़ हैं, इनमें स्वयं प्रेरणात्मक कर्तृत्व नहीं है किन्तु इनसे साधक प्रेरित हो सकता है। हर किसी का जीवन वर्तमान के साथ-साथ अतीत और भविष्य के साथ भी जुड़ा रहता है। अतीत को स्मरण कर वह अन्त:प्रेरित होता है। भविष्य की पवित्र कल्पनायें उसके वर्तमान में सात्त्विकता का समायोजन करती हैं। यही कारण है कि वे स्थान जो तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवनवृत्तों से सम्बद्ध रहे हैं, आध्यात्मिक गौरवमय इतिहास का स्मरण कराते हैं जिससे साधक ध्यानोन्मुख हो अंत:प्रेरणा पाता रहता है।
यदि वैसे ऐतिहासिक स्थान भी अत्यधिक संकुल या कोलाहलपूर्ण हों तो वे भी स्वीकार्य नहीं हैं। इसलिए ग्रन्थकार ने इसी श्लोक में विविक्त-एकान्त स्थान का विशेष रूप से आश्रय लेने का संकेत किया है। ध्यानसाधना में उनका क्या स्थान है, यह भी बतलाया गया है। आसन :
ग्रन्थकार ने ध्यान के सम्बन्ध में संकेत करते हुए आसनजय शब्द का प्रयोग किया है। वह बड़ा महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि ध्यान चित्त की एकाग्रता के साथ जुड़ा हुआ है किन्तु उसमें दैहिक समीचीनता भी अपेक्षित है। आसन दैहिक समीचीनता के वैज्ञानिक उपक्रम हैं। आसन विशेष में स्थित होने से देह की निराकुल प्रशान्त अवस्थिति ध्यान के विकास में सहयोग करती है।
___ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आसन साध्य नहीं है वरन् ध्यान-रूप साध्य का सहयोगी है। इसलिए ऐसे ही आसनों का ध्यान में प्रयोग करना चाहिए जो तनाव या क्लिष्टता उत्पन्न न करें, सहजता और सुखमयता लिये हों।
भारत में एक समय ऐसा आया जब हठयोग में आसन आदि योग के बाह्य अंगों को अत्यधिक महत्त्व दिया गया। आसनों की संख्या चौरासी से चौरासी लाख तक बढ़ गयी । यों कहा गया कि चौरासी लाख जीवयोनियों में जितनी स्थित होने की अवस्थायें हैं उतने ही आसन विधेय हैं।40 40. घेरण्डसंहिता 2-1 ~~~~~~~~~~~~~~ 23 ~~~~~~~~~~~~~~~
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