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जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
विषय पर प्रश्न किये जा सकते थे। जब भारती आचार्य शंकर के साथ शास्त्रार्थ में टिक नहीं सकी तो उसने उनसे “कला कियत्यो वद पुष्पधन्वनः” इन शब्दों में कामशास्त्र पर प्रश्न किया। आचार्य शंकर नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। उन्होंने काम शास्त्र का अध्ययन किया ही नहीं था । शंकर ने भारती से एक मास का समय मांगा। उन्होंने एकान्त में 'जाकर अपने शिष्यों से कहा- " मैं इस देह का त्याग कर रहा हूँ, तुम लोग इसकी रक्षा करना । यों कहकर उन्होंने उसी समय अन्यत्र मृत राजा की देह में प्रवेश किया ! राजा जीवित हो उठा, एक मास तक राजा की देह से उन्होंने कामशास्त्र का परिशीलन किया। तत्पश्चात् उस देह का त्याग कर पुनः अपनी देह में प्रवेश किया । यों वह राजा मर गया। शंकर संजीव हो उठे। फिर उन्होंने भारती को शास्त्रार्थ में पराजित किया ।
खण्ड : सप्तम
• सम्भव है, इस प्रकार की अन्य भी घटनायें घटित हुई हों । आचार्य हेमचन्द्र जैन आचार्य तो थे ही, वे महान् युगप्रवर्तक भी थे । इसलिए उन्होंने उन विषयों को भी नहीं छोड़ा जो साधना में तो उपयोगी नहीं हैं किन्तु कुतूहलजनक हैं। यही कारण है कि उन्होंने योगशास्त्र के छठे प्रकाश में परकाय प्रवेश का वर्णन किया है।
उन्होंने इस अध्याय के प्रारम्भ में लिखा है कि यहाँ परकाय- प्रवेश की विधि का जो दिग्दर्शन कराया गया है वह केवल कौतूहल या आश्चर्यजनक है। उसका आध्यात्मिक परमार्थ से सम्बन्ध नहीं है। बहुत समय पर्यन्त करने पर वह सिद्ध हो भी जाती है, नहीं भी होती है। 56
प्रत्याहार :
प्रशान्त बुद्धि वाला साधक इन्द्रियों के साथ मन को भी शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँचों विषयों से हटाकर उसे धर्मध्यान के चिन्तन में लगाने का प्रयत्न करे । 57 इसका तात्पर्य यह है कि जब तक इन्द्रियाँ और मन विषयों से विरत नहीं हो जाते, तब तक मन में शान्ति का प्रादुर्भाव नहीं होता । अतः मन को प्रशान्त
ने के लिए उसे विषयों की ओर से हटाना आवश्यक है । प्रशान्त मन ही निश्चल हो सकता है और धर्मध्यान लिए मन का निश्चल होना आवश्यक है । अतएव
56.
योगशास्त्र श्लोक 6-1 57. वही, 6.6
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