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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
यः सः ध्याता'-जो ध्यान करता है उसे ध्याता कहा जाता है। ध्यान, ध्येय और ध्याता का 'तत्त्वानुशासन' में भी शाब्दिक विश्लेषण हुआ है।
ध्येय के स्वरूप का विवेचन करते हुए ग्रन्थकार ने कहा कि ज्ञानीजनों द्वारा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के रूप में चार प्रकार के ध्येय या आलम्बन बतलाये गये हैं।62
ग्रन्थकार ने यहाँ ज्ञानियों द्वारा बताये जाने का उल्लेख कर पूर्ववर्ती योगनिष्णात महापुरुषों के प्रति अपना श्रद्धाभाव व्यक्त किया है। कहने का उनका यह तात्पर्य है कि ध्यान के आलम्बन पूर्व काल से ही स्वीकृत रहे हैं, ये सर्वमान्य हैं।
पिण्ड शब्द किसी एक तत्त्व के विभिन्न अंगोपांगों के समवेत रूप का वाचक है। उदाहरणार्थ विभिन्न रूपों में विस्तीर्ण व्याप्त, पृथ्वी तत्त्व को समवेत रूप में लिया जाय तो उसके लिए पृथ्वी पिण्ड संज्ञा अभिहित होती है।
ग्रन्थकार ने पृथ्वी, अग्नि, वायु तथा जल को पिण्ड रूप में गृहीत कर उनके आधार पर ध्यान का अभ्यास करने का एक बड़ा ही मनोवैज्ञानिक उपक्रम प्रस्तुत किया है। विभिन्न तत्त्वों पर आधृत ध्यान प्रक्रिया को उन्होंने धारणा कहा है।
उन्होंने पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी तथा तत्त्वभू के रूपमें पिण्डस्थ ध्येय की पाँच धारणाओं का उल्लेख किया है। उनके लिए धारणा शब्द के प्रयोग का भी अपना अर्थ है। ये धारण या ग्रहण किये जाने योग्य हैं। अथवा धारण किये जाने के स्थान हैं। ऐसा भाव इस शब्द के साथ जुड़ा हुआ है। इनको गृहीत या धारित किये जाने पर ध्यान का प्रवाह स्थिरता या अपृथग्गामिता प्राप्त करता है।
पार्थिवी धारणा:
यह लोक ऊर्ध्व, मध्य एवं अध: इन तीन भागों में विभक्त है। जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं, उसे मध्य या तिर्यग्लोक कहा जाता है। जैन शास्त्रों के अनुसार उसका विस्तार एक रज्जु परिमित है। साधक मन में ऐसा परिकल्पित करें कि क्षीरसागर के मध्य में स्थित एक लक्षयोजन विस्तीर्ण एक सहस्रदल कमल है। फिर उस कमल 62. वही, 7.8 63. वही, 7-9 ~~~~~~~~~~~~~~~ 32 ~~~~~~~~~~
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