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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
A
और
को जीता नहीं जा सकता ।
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प्राणवायु
मन और प्राणवायु का सम्बन्ध बतलाते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है कि जहाँ मन है वहीं वायु है, जहाँ वायु है, वहाँ मन है। ये दोनों समान क्रियायुक्त हैं। दूध और जल की ज्यों परस्पर मिले हुए हैं, एक के नष्ट होने पर अन्य का नाश हो जाता है। एक वर्तनशील रहने पर अन्य की वर्तनशीलता बनी रहती है। जब इन दोनों का ध्वंस हो जाता है तब इन्द्रिय और बुद्धि विषयक व्यापार का भी नाश हो जाता है । "
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जैसा ऊपर संकेत किया गया है कि प्राणवायु देह में अनवरत गतिशील रहने वाला सहज उपक्रम है । मन भी प्रतिक्षण क्रियाशील रहता है। इधर-उधर जाना-आना इसका स्वभाव है। मन की गतिशीलता सूक्ष्म है, प्राणवायु की गमनागमन वृत्ति स्थूल है। स्थूल और सूक्ष्म का भेद होते हुए भी शरीर के अन्य अंगोपांगों-इन्द्रियों की अपेक्षा मन का प्राणवायु के साथ अधिक तादात्म्य है। अतएव यहाँ दोनों का निकटतम सम्बन्ध बतलाया गया है । प्राणवायु के नियमन का अभ्यास सुदृढ़ता पा लेता है। तब यदि उस अभ्यास को मन के साथ जोड़ा जाता है तो वह उसे भी नियंत्रित करने में सफल हो सकता है, ऐसा संभावित है।
प्राणायाम का लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थकार ने श्वास और प्रश्वास के गतिच्छेद या निरोध को प्राणायाम कहा है। रेचक - पूरक और कुम्भक के रूप में तीन भेदों का वर्णन किया है। 51
इसके पश्चात् ग्रन्थकार ने अन्य आचार्यों द्वारा स्वीकृत प्रत्याहार, शान्त, उत्तर तथा अधर संज्ञक चार भेदों का प्रतिपादन किया है । यों रेचक आदि तीन भेदों को मिलाकर प्राणायाम के सात भेद भी कहे हैं । 52
ग्रन्थकार आचार्य हेमचन्द्र ने प्राणायाम की उपयोगिता व्याधिनिवृत्ति, देहपुष्टि, शारीरिक बल - तेज की वृद्धि, वात पित्त कफ तथा सन्निपात की शान्ति आदि के लिए बतलायी है। ध्यान के साथ उसका कोई सीधा सम्बन्ध हो ऐसा प्रतीत नहीं होता । 49. वही, 5.1
50. वही, 5.2-3
51. वही, 5.4
52.
वही, 5.5
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