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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
परिषह विनष्ट हो जाते हैं और साधक का ध्यान-उपक्रम अभग्न रहता है।
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7. आस्रव भावना:
नवतत्त्वों में आस्रव एक तत्त्व है जो सरोवर में जल लाने वाले नालों के समान आत्मा में कर्मों का आस्रवण करता है। कर्म प्रवाह रूप हैं। शुभ-अशुभ, मानसिकवाचिक-कायिक योगों द्वारा कर्मों का बन्ध होता है। मानसिक आदि योग जब शुभ प्रवृत्तियों से जुड़ते हैं तो शुभ कर्मों का बन्ध करते हैं। आस्रवों के कारण ही जीव विभिन्न प्रकार के कर्मों का बन्ध करता हुआ भवाटवी में भ्रमण करता रहता है। आत्मा को अपना चरम लक्ष्य साधने हेतु अशुभ-शुभ सभी कर्मों से विमुक्त होना होगा। यद्यपि उनसे विमुक्त होने की क्रमिक श्रेणियाँ हैं किन्तु अन्तत: उन सबका क्षय करना ही होगा। इन्हीं भावों का ग्रन्थकार ने अपने शब्दों में विश्लेषण किया है।19
आस्रव भावना के चिन्तन से साधक के मन में कर्मनिर्मुक्त आत्मस्वरूप को अधिगत करने का भाव निष्पन्न होता है, जो आध्यात्मिक योग की साधना में ध्यान में उसकी अन्तर्वृत्ति को समाविष्ट करता है।
8. संवर भावना:
संवर आस्रव का विपरीत रूप है। आस्रवों के विविध रूपों का जिन-जिन उपायों से संवरण या अवरोध किया जाता है, उनकी संवर संज्ञा है। आस्रव को कर्मनिरोध का कारण बतलाया गया है। इसी आशय को ग्रन्थकार ने विस्तार के साथ यहाँ प्रतिपादित किया है।20
संवर भावना के पुन:पुन: परिशीलन से चित्त में कर्मप्रवाह का निरोध करने का पराक्रम समुदित होता रहता है। कर्मबन्धमूलक भौतिक सुखानुभूति का भाव छूटता जाता है। ऐसा होने पर चित्तवृत्ति अन्तरात्म भाव की ओर मुड़ने लगती है जो उसके उत्तरवर्ती आत्मप्रकर्ष की द्योतक है। यह आत्म-प्रकर्ष ही ध्यानसाधना का अभिप्रेत है।
19. 20.
वही, 4.74-77 वही, 4.79-85
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