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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
से वर्जित है। वह शर्म-आध्यात्मिक आनन्द का उत्पादक है।
धर्म-भावापन्न धर्मध्यान अनेक प्रकार का है। शमक-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से पूर्व छठे और सातवें गुणस्थान में घटित होता है। आर्तध्यान प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में मुख्य होता है और आगे के तीन गुणस्थानों में वह गौण हो जाता है। धर्मध्यान ही अत्यन्त शुद्धावस्था प्राप्त कर शुक्ल ध्यान के रूप में परिणत हो जाता है। आगे उन्होंने शुक्ल ध्यान के चार भेदों का वर्णन किया है।115
तत्पश्चात् धर्म ध्यान के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपवर्जित-रूपातीत ध्यान का वर्णन किया गया है।
पिण्डस्थ ध्यान का निरूपण करते हुए उन्होंने भगवान के प्रति संस्तवन के शब्दों में लिखा है- “स्वच्छ स्फटिक के सदृश निर्मल, आदित्य तेज की ज्यों भास्वर, दूर आकाश प्रदेश में लोकाग्र भाग में संस्थित, समस्त अतिशय युक्त, प्रातिहार्य समन्वित, भव्यजनों के लिए आनन्दप्रद, विश्वज्ञ, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, नित्यानन्द स्वरूप, अनन्त आत्मबल संयुक्त परमात्मा को अपने देहस्थ आत्मा से अभिन्न मानते हुए तथा शुद्ध ध्यान रूप अग्नि द्वारा समस्त कर्मों का दहन करते हुए प्रभो जो आपका ध्यान करते हैं, उनका वह ध्यान पिण्डस्थ ध्यान के रूप में समादृत है।116
उन्होंने आगे लिखा है- हे प्रभो ! आपके नाम पद रूप मन्त्र का जो एकाग्रता पूर्वक चिन्तन करता है वह पदस्थ ध्यान के रूप में आख्यात हुआ है।
जो आपके नाम के अक्षरात्मक, शुभ्र प्रतिबिम्ब का ध्यान करते हैं, भगवन् ! वह रूपस्थ ध्यान कहा गया है अथवा शुद्ध, शुभ्र अपने से भिन्न प्रातिहार्य आदि विशेषताओं से विभूषित अर्हन्त प्रभु का जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहा गया है अथवा विशुद्ध बुद्धियुक्त साधक देह से भिन्न आत्मस्थित आपके चिदात्मक स्वरूप का, परमात्म भाव का ध्यान करता है, वह रूपातीत ध्यान है।
असंख्यात प्रदेश स्थित, ज्ञान-दर्शन-युक्त, कर्ता, अनुभोक्ता, अमूर्त, सदात्मक, कथंचित् नित्य, शुद्ध, सक्रिय, न किसी पर रुष्ट होने वाले, न तुष्ट होने वाले, उदासीन 115. वही, 13-23 116. वही, 24-28 37 ~~~~~~~~~~~~~~~ 59 ~~~~~~~~~~~~~~
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