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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
ध्येय के स्वरूप का वर्णन किया है। ध्यान के चारों भेदों की भी चर्चा की है, ध्यान विधि, ध्यान का माहात्म्य आदि का भी विशेष रूप से वर्णन किया है।
ध्यान का निरूपण करते हुए उन्होंने लिखा है कि जो साधक शाश्वत या परम लक्ष्य सिद्ध करना चाहता है वह ध्यानविधि को भली भाँति हृदयंगम करे। वह तत्त्वचिन्तन के अमृतसागर में अपने मन को दृढ़तापूर्वक निमग्न कर उसे बाहरी विषयों में व्याप्त होने से सर्वथा दूर रखे। वह उसे जड़वत् बना ले। वह खड्गासन या वज्रासन में ध्यानार्थ स्थित हो। ध्यानामृत का आस्वाद लेते हुए साधक उच्छ्वास तथा निश्वास को सूक्ष्म करते हुए सब अंगों में प्राणवायु के हलन-चलन मूलक संचरण का निरोध करे। वह पाषाण की प्रतिमा जैसा बनकर ध्यान में स्थिरतापूर्वक संलग्न रहे। अपनी पाँचों इन्द्रियों को आत्मोन्मुख बना ले। बाह्य विषयों से दूर कर ले।131
उन्होंने ध्यान को परिभाषित करते हुए लिखा है कि चित्त को एक मात्र ध्येय में संलग्न करना ध्यान है। ध्यान का फल आध्यात्मिक उज्ज्वलता है। उसे अनुभूत करने में समर्थ आत्मा ध्याता है।
आत्मस्वरूप या आत्मज्योति या श्रुत ध्येय है। शारीरिक संयम, दूसरे शब्दों में, इन्द्रियों का नियंत्रण ध्यान में विहित है।
ध्याननिरत साधक पशु-पक्षीकृत, देवकृत, मानवकृत, आकाश से उत्पन्न, भूमि से उत्पन्न, अपने शरीर से उत्पन्न बाधा, पीड़ा, व्याधि आदि विघ्नों को दृढ़ता पूर्वक सहन करता जाय। वह अनुकूल और प्रतिकूल दोनों का लंघन कर जाय। विघ्न आने पर जो साधक दुबलता दिखाता है, उससे वे विघ्न मिटते नहीं, जैसे कोई मृत्यु के आगे यदि दैन्य प्रदर्शित करे तो भी वह उससे बच नहीं सकता। इसलिए उपसर्ग, बाधा, वैपरीत्य आदि के आने पर साधक मन में जरा भी क्लेश का अनुभव न करे। वह परब्रह्म परमात्मा में अपना चिन्तन जोड़े रखे।
आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार हेतु साधक ध्यान-साधना के लिए ऐसे स्थान का चयन करे जहाँ उसकी इन्द्रियाँ आसक्ति रूपी चोरों के द्वारा उत्पन्न विघ्न की पहुँच से परे हो, जहाँ ऐसे व्यक्ति या पदार्थ भी न हों जो मन में आसक्ति या मोह पैदा 131. यशस्तिलक चम्पू आश्वास श्लोक, 8.155-158 ~~~~~~~~~~~~~~~ 69 ~~~~~~~~~~~~~~~
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