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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
'योगशास्त्र' के अन्त में आचार्य हेमचन्द्र ने उल्लेख किया है। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना महाराज कुमारपाल की अभ्यर्थना पर की। महाराज कुमारपाल का यह अनुरोध रहा हो कि आचार्यवर ! आपने अनेकानेक बहमूल्य रत्नों का सर्जन किया है, साधना हेतु मेरे लिए भी एक ग्रन्थ की रचना करें, जिसके अनुसार में अध्यात्म की दिशा में अग्रसर हो सकूँ। आचार्य ने इस ग्रन्थ का नाम 'योगोपनिषद्' दिया, यद्यपि यह ग्रन्थ योगशास्त्र नाम से विख्यात है। उन्होंने इसके उपसंहार में विशेष रूप से उल्लेख किया है कि जो मैंने शास्त्रों में पढ़ा, गुरु के उपदेश से, गुरुजन के मुख से श्रवण किया, अनुभव द्वारा जाना, उसी का मैंने इस ग्रन्थ में उल्लेख किया है। ज्ञानीजनों के चित्त के लिए यह चामत्कारिक सिद्ध होगा।
‘योगशास्त्र' के रूप में आख्यात करने में सम्भव है ग्रन्थकार का कोई विशेष आशय रहा हो। भारत में विद्याक्षेत्र में शास्त्र शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पुस्तक, ग्रन्थ आदि की अपेक्षा शास्त्र शब्द के साथ एक महत्ता का समायोजन है। शास्तीति शास्त्रम्' के अनुसार जो शासित करे, अनुज्ञा के रूप में प्रेरित करे, जीवन में सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने का स्फूर्तिमय बोध प्रदान करे, वह शास्त्र है। इस ग्रन्थ के साथ शास्त्र शब्द को योजित करने में विशेष रूप से ग्रन्थकार का यह अभिप्राय रहा है कि उनका शिष्य कुमारपाल तथा अन्य लोग इसका अध्ययन कर इसे अपने जीवन में उतारेंगे और योगनिष्पत्ति लभ्य शान्ति का साक्षात्कार करेंगे। 'प्रशमरतिप्रकरण' में भी अन्य प्रकार से ऐसा ही भाव प्रकट किया है।
आचार्य हरिभद्र ने अपने अन्य ग्रन्थों को ‘योगदृष्टिसमुच्चय', 'योगबिन्दु', 'योगशतक' और 'योगविंशिका' नाम दिये, किसी के साथ शास्त्र शब्द नहीं जोड़ा। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने योगविषयक ग्रन्थ को 'ज्ञानार्णव' की संज्ञा दी। उत्तरवर्ती महान् विद्वान् तथा योगनिष्णात यशोविजय जी ने भी अपने योगविषयक ग्रन्थों को 'अध्यात्मसार' आदि नामों द्वारा अभिहित किया। अभिप्राय यह है कि 'योगशास्त्र' के रूप में आचार्य हेमचन्द्र का ग्रन्थ ही जैन योगवाङ्मय में विश्रुत है।
एक बहुत बड़े प्रदेश के शासक के लिए इस ग्रन्थ की रचना करते समय
1. 2.
योगशास्त्र, 12.55 प्रशमरति. 188
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