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आचार्य हेमचन्द्र, योगप्रदीपकार व सकलचन्द्रगणि के साहित्य में ध्यानसम्बन्धी निर्देश खण्ड : सप्तम
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योग है और "समत्वयोग उच्यते" समता की साधना ही योग है । 3
योग शब्द का कर्म - कौशल अर्थ भी जैन संस्कृति को मान्य प्रतीत होता है क्योंकि यहाँ मन, वचन और काया के कार्य-व्यापारों को योग माना गया है।
भगवान बुद्ध ने योग के स्थान पर समाधि शब्द का प्रयोग किया है और उनकी दृष्टि में हृदय का संशय रहित होना और मन, वचन एवं काया का सन्तुलन ही योग अथवा ध्यान है । मन, वचन और काया का सन्तुलन होने पर ही चित्त स्थैर्य प्राप्त होता है और चित्त की स्थिरता में ही समाधि है - आत्मस्वरूप अवस्थिति है । व्याकरण में धातु, प्रत्ययगत अर्थ यौगिक अर्थ को योग कहते हैं। रसायन क्रिया में दो भिन्न पदार्थों के मिलने से नये पदार्थ की उत्पत्ति को योग कहते हैं । गणित में जोड़ को योग कहते हैं ।
श्री भद्रबाहु स्वामी ने 'आवश्यक निर्युक्ति' में साधु की व्याख्या करते हुए कहा है कि- "निव्वाण - साहए जोगे जम्हा साहंति साहुणो ।” जिन्होंने निर्वाणसाधक योग की साधना की है वे साधु हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में योग को वाहन की उपमा दी गई है - " वाहणे वहमाणस्य कंतारं अइवत्तई । जोए वहमाणस्स संसारो अइवत्तई । ” अर्थात् वाहन को वहन करते यानी खींचते हुए जैसे बैल जंगल को लांघ जाते हैं वैसे ही योग को वहन करते हुए साधक संसार रूपी जंगल को पार कर लेता है।
योग की व्याख्या :
आचार्य उमास्वाति ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है। उसी को आचार्य हेमचन्द्र ने योग कहा है। 4 जैसा कि पहले वर्णित हुआ है आचार्य हरिभद्र के अभिमत में धर्मसाधना योग है। उनके अनुसार योग वह है जो मोक्ष से योग अर्थात् संबंध करावे । धर्म मोक्ष का साधन है इसलिए धर्म का जितना परिशुद्ध व्यापार है वह सब योग है।' उन्होंने अपने योगविषयक सभी ग्रन्थों में उन सब साधनों को योग कहा है, जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्ममल 3. तत्त्वार्थ सूत्र 1.1
4.
अभिधान चिन्तामणि 1. 77
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योगविंशिका, 1 व्याख्या
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