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खण्ड : सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
संभवत: ग्रन्थकार के मन में यह भाव रहा हो कि योगसाधना को वे इतने सरल सुबोध रूप में प्रस्तुत करें कि जिससे अनेकानेक लौकिक उत्तरदायित्वों को वहन करते हुए भी व्यक्ति उसे साध सके। इसलिए उन्होंने गृहस्थोपयोगी क्रम को अपनाया। व्रतादि साधना के अंगों को योग की दृष्टि से विशेष रूप से प्रतिपादित किया।
___ध्यान की विशेष चर्चा अष्टांग योग के सातवें चरण के रूप में मिलती है। इस प्रकार योग और ध्यान वस्तुत: एक दूसरे के पूरक हैं। ध्यान योग का ही अंग है। अत: योग के स्वरूप को समझे बिना ध्यान की चर्चा संभव नहीं। पातंजल 'योगसूत्र' में ध्यान के पूर्व यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार तथा धारणा को ध्यान का पूर्ववर्ती बताया गया है और समाधि का उल्लेख ध्यान की परिनिष्पत्ति के रूप में हुआ है। इस प्रकार ध्यान और योग में सहसंबंध होने के कारण योगशब्द की व्याख्या आवश्यक प्रतीत होती है।
'योग' शब्द ने कब, कहाँ से अर्थबोध की यात्रा प्रारम्भ की है और इस शब्द से किसने क्या समझा है, यह कहना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि ध्यानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग, अध्यात्मयोग, सांख्ययोग, ज्ञानयोग आदि शब्दों में योग शब्द अलग-अलग अर्थों का बोध करा रहा है।
__योग शब्द प्राय: ध्यानयोग के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। पतंजलि का योगदर्शन ध्यान-योग की ही आद्योपान्त व्याख्या है। पतंजलि ने योगसूत्र में इसे चेत्तवृत्ति का निरोध कहा है। योग की यह व्याख्या ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व की गयी थी, किन्तु ध्यानावस्थित साधकों की अनेक मूर्तियाँ, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से उपलब्ध हुई हैं, अत: ज्ञात होता है कि ध्यानयोग की प्रक्रिया से उस काल का मानव भी परिचित हो चुका था जिसे आज के ऐतिहासिक एवं पुरातत्त्ववेत्ता प्रागेतिहासिक काल कहते हैं।
श्रीकृष्ण का काल ईसा से 3000 वर्ष पूर्व माना गया है, कुछ ऐसे विद्वान् भी हैं जो श्रीकृष्ण को 22000 वर्ष पूर्व का मानते हैं। उन्होंने गीता में सांख्ययोग, भक्तियोग, कर्मयोग, अनासक्त योग आदि शब्दों का प्रयोग किया है। ज्ञातव्य है कि श्रीकृष्ण के समय योग शब्द पूर्णत: प्रसिद्धि पा चुका था। श्रीकृष्ण ने योग शब्द के मुख्यत: दो अर्थ किये हैं - "योगः कर्मसु कौशलम्" कर्म करने में कुशलता ही ~~~~~~~~~~~~~~~ 5 ~~~~~~~~~~~~~~~
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