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खण्ड: सप्तम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
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। अनित्य भावना:
अनित्य भावना के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जो हमें प्रात:काल दृष्टिगोचर होता है, वह मध्याह्न में दिखलाई नहीं देता। जो मध्याह्न में दिखलाई पड़ता है वह रात्रि में प्राप्त नहीं होता, इस संसार का ऐसा स्वरूप है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिन पदार्थों के साथ प्राणी संपृक्त रहता है, वे अनित्य हैं।
इस जीवन में शरीर ही समस्त प्राणियों के पुरुषार्थ की सिद्धि का हेतु है अर्थात् शरीर द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ उपात्त होते हैं। किन्तु उतना महत्त्वपूर्ण शरीर भी प्रचण्ड वायु के आघात से विनष्ट हो जाने वाले मेघों के सदृश लक्ष्मी, धन, सम्पत्ति जिसमें हर कोई विमोहित रहता है, उसी तरह चंचल हैं जिस तरह समुद्र की लहरें होती हैं। प्रिय-अप्रिय का संयोग, यौवन इत्यादि इस तरह विलुप्त हो जाते हैं, उड़ जाते हैं जिस प्रकार आक की रुई वायु से उड़ जाती है।12
जब व्यक्ति साधना-निष्ठ बनने को उद्यत होता है. ध्यान-निरत होने का अभ्यास करता है तब उसकी एकाग्रता को भग्न करने वाले ये ही पदार्थ या हेतु हैं, जिनको आचार्य हेमचन्द्र ने अनित्य कहकर नश्वर बतलाया है। सुखद पदार्थ, अनुकूल वैभव, ऐश्वर्य, देहसम्पदा आदि ही वे कारण हैं, जो ध्यान का अभ्यास करने वाले की गति को अवरुद्ध कर डालते हैं। ज्योंही साधक अपने आप को ध्यान से संयुक्त करता है, तद्गत आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति का संस्पर्श करता है, ये कारण अनायास उपस्थित होकर उसका गत्यवरोध कर डालते हैं। जब साधक के मन में इनकी विनश्वरता, क्षणभंगुरता का निश्चय हो जाता है, तब वह विचलित नहीं होता। विचलित होने का यह क्रम टूट जाता है।
विनश्वर पदार्थों या निमित्तों का वर्णन कर ग्रन्थकार ने आगे लिखा है कि साधक संसार के उस अनित्य नश्वर स्वरूप का प्रतिक्षण स्थिरतापूर्वक चिन्तन करता रहे। इससे भौतिक भोगोपभोगमय पदार्थों के प्रति निर्ममत्व भाव जागृत होता है। जिस प्रकार काले नाग को मंत्र द्वारा वश में किया जा सकता है, उसी प्रकार तृष्णा को इस चिन्तन द्वारा निर्मूल किया जा सकता है।13 12. योगशास्त्र, 4.57-59 13. वही, 4.60
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