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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
____ मुक्तावस्था में जीव के ध्यान भी नहीं होता क्योंकि घाती एवं अघाती सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है। यह कर्मक्षय की प्रक्रिया शुक्ल ध्यान के चतुर्थ भेद के समय सम्पूर्णतया सम्पन्न हो जाती है। आगे ध्यान की आवश्यकता नहीं रहती है।
शुक्ल ध्यान के चार भेदों में प्रथम दो सूक्ष्म पृथक्त्व वितर्क, एकत्व वितर्क श्रुतकेवली के होते हैं। अन्तिम दो ध्यानों में तीसरा ध्यान सयोग केवलीअवस्था में एवं चौथा ध्यान अयोग केवलीअवस्था में होता है। मुक्तावस्था में कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाने के कारण सिद्धात्माओं में ध्यान की स्थिति नहीं रहती क्योंकि संकल्पविकल्प के कोई कारण ही वहाँ विद्यमान नहीं रहते जिनके लिए ध्यान किया जाय या जिनका निरोध किया जाय।130
'योगमार्ग' ध्यान पर ऐसी प्रगाढ़ पाण्डित्यपूर्ण कृति है जो कलेवर में छोटी होते हुए भी भावोदात्तता, वर्णन की उत्कृष्टता और गंभीरता के कारण बड़ी विलक्षणता लिये हुए है। सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू में ध्यान :
आचार्य सोमदेव ने 'यशस्तिलकचम्पू' में प्रसंगोपात्त ध्यान का विवेचन किया है। 'यशस्तिलक चम्पू' संस्कृत साहित्य की एक अत्यन्त गौरवपूर्ण कृति है। साहित्य में जिस रचना में गद्य-पद्य दोनों शैलियों का प्रयोग किया जाता है, उसे चम्पू कहते हैं। संस्कृत में अनेक चम्पू काव्यों की रचना हुई है। सोमदेवकृत यशस्तिलकचम्पू' में उज्जैन के सम्राट् यशोधर का वृत्तान्त है। इसी कारण इस महाकाव्य का दूसरा नाम 'यशोधरमहाराजचरितम्' भी है। महाकाव्य में धर्म, दर्शन, राजनीति, व्यवहार आदि अनेक विषयों का वर्णन होता है। इस महाकाव्य में संस्कृत के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'कादम्बरी' जैसे लम्बे समासयुक्त पदों का, क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसके आठ आश्वास हैं। पहले पाँच आश्वासों में इसकी कथावस्तु परिसमाप्त हो जाती है। अन्तिम तीन आश्वासों को उपासकाध्ययन के रूप में अभिहित किया गया है। इसमें 46 कल्प हैं। यह उपासकों या गृही साधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्रसंगवश सुदत्त नामक आचार्य के मुख से ग्रन्थकार ने उपदेश के रूप में ध्यान, ध्याता और
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वही, गा. 36
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