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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
आचार्य भास्करनन्दि ने भगवान के नामाक्षरों को शुभ्र उज्ज्वल प्रतिबिम्ब प्रतीक के रूप में स्वीकार कर किये जाने वाले ध्यान को रूपस्थ ध्यान कहा है।
शुद्ध, शुभ्र अपने बाह्य दैहिक रूप से भिन्न प्रातिहार्य आदि से विभूषित अपने देहस्थ अर्हत्स्वरूप आत्मा का ध्यान करना भी रूपस्थ ध्यान के अन्तर्गत है।
शुभचन्द्र-हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने रूपस्थ ध्यान का सम्बन्ध वीतराग प्रभु अरिहंत देव के स्वरूप के साथ जोड़ा है। भास्करनन्दि ने इस सन्दर्भ में कुछ और विशेष बात कही है। उन्होंने भगवान के नामाक्षरमय प्रतीक को भी रूप मानकर उस पर किये जाने वाले ध्यान को रूपस्थ कहा है।
रूपस्थ ध्यान के संदर्भ में उन्होंने एक अन्य अपेक्षा से जो विश्लेषण किया है वह साधक की देह के अन्तर्वर्ती आत्मा के परम दिव्य शुद्ध स्वरूप के साथ संपृक्त है। वहाँ आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही ध्येय आलम्बन के रूप में गृहीत हुआ है।
रूपातीत ध्यान में आत्मा के सत्चित् आनन्दमय स्वरूप को गृहीत किया गया है।
आचार्य शुभचन्द्र कृत 'ज्ञानार्णव' में ध्यानसाधना का विस्तृत विवेचन हुआ है। आचार्य ने एक ओर जैन परम्परा की ध्यान-साधना विधि को तो सुरक्षित रखा किन्तु तांत्रिक प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं रख पाये। इस शताब्दी में जैन योग अष्टांगयोग, हठयोग और तंत्र-शास्त्र से अधिक प्रभावित मिलता है। आगमिक युग में जो धर्मध्यान था, वह इस काल में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार रूपों में वर्गीकृत हो गया। इनका स्रोत कहाँ है तथा ये उत्तरोत्तर किस प्रकार से विकास को प्राप्त हुए हैं,यह विचारणीय है। इन भेदों का निर्देश आगमों एवं मूलाचार, भगवती आराधना, षट्खण्डागम, तत्त्वार्थ सूत्र, ध्यानशतक आदि ग्रन्थों में नहीं मिलता है।
इन भेदों का उल्लेख हमें आचार्य देवसन (10वीं शती) विरचित 'भावसंग्रह'119 में उपलब्ध होता है। इनका उल्लेख योगीन्दु (सम्भवत: ई. छठी 119. भावसंग्रह पिण्डस्थ 919-22, पदस्थ 626-27 रूपस्थ 623-25,
रूपातीत 628-30 ~~~~~~~~~~~~~~~ 61 ~~~~~~~~~~~~~~~
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