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खण्ड : षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
विरक्ति, तितिक्षा एवं अनासक्तिपूर्ण स्वरूप को ध्यान में रखना होगा। उन्होंने स्त्री का जिन शब्दों में चित्रण किया है वह स्त्री मात्र को लक्षित कर नहीं है। वह स्त्री के उस स्वरूप को लेकर है, जिसमें नितान्त भोगासक्ति संपृक्त रहती है। ब्रह्मचर्य का रक्षण तो नवबाड़ों और एक परकोटे के साथ किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्यपरिरक्षण में पग-पग पर जागरूकता एवं सावधानी की आवश्यकता है।
जब किसी पदार्थ को विषय से पृथक् करना अत्यन्त आवश्यक होता है तब मेधावी उपदेष्टा, कुशल ग्रंथकार आचार्य आदि गुरुजन उस पदार्थ या विषय को अत्यन्त जुगुप्सापूर्ण एवं निन्दनीय बतलाते हैं। वहाँ भावावेशवश वर्णन में घृणा को अतिशय रूप दिया जाता है। वहाँ उन उपदेशकों का आशय उपलक्षित विषय की निन्दा करना न होकर, साधकों को पतन की भावी आशंकाओं से उबारना होता है।
आचार्य शुभचन्द्र वीतरागभावोपासक मुनि थे, महान् तत्त्ववेत्ता थे और जैसा पहले कहा गया है विलक्षण प्रतिभासम्पन्न महान् कवि थे। यही कारण है कि स्त्री आदि के वर्णन में उनके व्यक्तित्व में स्थित तत्त्वज्ञानी मुखरित नहीं है वरन् वहाँ विद्यमान उनका कवि निर्बाध रूप में विषय-वैशद्य हेतु काव्यमयी सरिता का सम्प्रवाह करता है। काव्य, दर्शन नहीं है, किन्तु वह भाव-मन्दाकिनी का संवाहक है। यही कारण है कि आचार्य शुभचन्द्र का वह वर्णन वीभत्स रस का प्रखर प्राकट्य लिये हुए है। वस्तुत: स्त्री जाति के प्रति उनके मन में घृणा भाव रहा हो, ऐसा नहीं माना जा सकता।
आचार्य शुभचन्द्र महान् ज्ञानी होने के साथ-साथ बड़े व्यवहारवेत्ता भी थे। समाज किस प्रकार सत्संस्कार-सम्पन्न हो, जिससे धर्म की आराधना में वह सदा उन्मुख बना रहे, इस ओर भी इनका विशेष ध्यान था। शैशव, यौवन, वार्धक्य इन तीनों ही अवस्थाओं में से प्रत्येक व्यक्ति को गुजरना पड़ता है। जीवन में वृद्धावस्था वह समय है जब व्यक्ति को दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए औरों का सहयोग वांछित होता है। क्योंकि वृद्धावस्था में दैहिक शक्तियाँ क्षीण होती जाती हैं, ऐसी भी दुखद स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं कि वृद्धजनों ने अपने जिस परिवार का निरन्तर श्रमपूर्वक परिपोषण, संवर्द्धन एवं विकास किया ; वे पारिवारिक सदस्य ही सब भूल जाते हैं, वृद्ध उपेक्षित बन जाते हैं। एक स्वस्थ सात्त्विक समाज में ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। ऐसा होना घोर कृतघ्नता है। यह सब ध्यान में रखते हुए ग्रन्थकार ने अपने
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