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खण्ड: षष्ठ
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
देकर सद्प्रवृत्तियों में लगाने का पहले प्रयत्न किया जाय।
ध्यानमूलक एकाग्रता का भी मन या चित्तवृत्ति के साथ गहरा सम्बन्ध है। जब तक मन का चांचल्य अपगत नहीं होता, एकाग्रता सध नहीं सकती।
आचार्य शुभचन्द्र ने भी मनोजय पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने लिखा हैजिन व्यक्तियों ने मन का निरोध कर लिया है, उसे वश में कर लिया है, उन्होंने विश्व को ही मानों वश में कर लिया। जो चित्त को संवृत नहीं कर सका, जीत नहीं सका, रोक नहीं सका, उसके लिए इन्द्रियादि का निरोध व्यर्थ है, क्योंकि मन की शुद्धि से ही प्राणियों के कलंक-पाप का विलय होता है। यदि मन समभाव स्वरूप प्राप्त कर लेता है तो स्वार्थ-आत्मा का यथार्थ प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। जो पुरुष चित्त के प्रपञ्च से उत्पन्न अनेक प्रकार के विकारों को रोक देते हैं, उन्हीं के द्वारा मुक्ति रूपी कान्ता का पाणिग्रहण किया जा सकता है। वैसे महान् पुरुष ही मोक्षगामी बनते हैं।
__कर्म रूपी दृढ़ बेड़ियाँ तभी कट सकती हैं जब मन को समस्त विकल्पों से दूर कर वश में किया जाय। मन को समत्वभावापन्न करने से भवभ्रमण से उत्पन्न दोष नष्ट हो जाते हैं। मन दैत्य की ज्यों बड़ा प्रबल है। उसे जीतने से समस्त अर्थों की, प्रयोजनों की, आध्यात्मिक लक्ष्यों की सिद्धि हो जाती है। मन को जीते बिना यम, व्रत, नियम आदि का अनुसरण करना क्लेश मात्र है, व्यर्थ है। मन को रोकना समस्त अभ्युदयों का साधक है, मनोजय का आलम्बन लेकर ही योगी तत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। जो धैर्यशील साधक आत्मा और शरीर आदि पर-पदार्थों को पृथक्-पृथक् कर भेदविज्ञान प्राप्त करते हैं वे सबसे पहले मन की चंचलता को रोक देते हैं। निश्चय ही, मन की शुद्धि से ही वास्तविक शुद्धि होती है। मन:- शुद्धि के बिना बाह्य शुद्धि के विविध उपक्रम काय को क्षीण करना मात्र है। मन की शुद्धि केवल ध्यान को ही शुद्ध नहीं करती वरन् जीवों के कर्मजाल को भी विच्छिन्न कर डालती है।35
निष्कर्ष के रूप में ग्रंथकार ने लिखा है कि वही ध्यान है, वही विज्ञान है, वही ध्येय है, वही तत्त्व है, जिसके द्वारा अविद्या का, अज्ञान का, अतिक्रमण कर मन आत्मतत्त्व में स्थिर बने।36 35. ज्ञानार्णव 22.6-15 36. वही, 22.20
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