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आचार्य शुभचन्द्र,भास्करनन्दि व सोमदेव के साहित्य में ध्यानविमर्श
खण्ड : षष्ठ
है। वह अपने धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाकर जो भी सामने होते हैं, उनको विमोहित कर डालता है।
कामतत्त्व की परिकल्पना में एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तथ्य अनुस्यूत है। वह काम ही, जैसा ऊपर सूचित हुआ है, अपनी परिपूर्ति हेतु व्यक्ति को दुर्गम से दुर्गम, कठोर-से-कठोर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करता है। यदि उस शक्तिमयी प्रेरणा का त्याग, वैराग्य, साधना, योग, कवित्व, सेवा आदि में मनोविज्ञान की भाषा में Sublimation परिष्करण या रूपान्तरण कर दिया जाय तो वह उन-उन क्षेत्रों में एक चामत्कारिक तथा विलक्षण परिणाम ला सकती है। जो परिणाम काम में सांसारिक भोगों के रूप में प्रकट होता है वह अत्यन्त उच्च कोटि की साधना आध्यात्मिक तपश्चरण, योग, साहित्य, तथा सेवा के रूप में उद्भावित हो जाता है। संसार में जो महान् त्यागी, संन्यासी, मुनि, तपस्वी, भक्त, साधक, योगी, जनसेवी या कलाकार हुए, जिन्होंने स्वयं को सब कुछ विस्मृत कर अपने कार्यों में पागल की तरह जोड़े रखा, वे इसी कोटि के पुरुष थे, जिनकी विपुल इच्छाशक्ति सांसारिक भोगों से पराङ्मुख होकर उन कार्यों की पूर्ति में आत्मतोष पाने लगी। 112
ग्रंथकार ने काम तत्त्व की परिकल्पना में समस्त कामात्मक साधनों को प्रतीक के रूप में सम्मुख रखकर तद्गत कामात्मक ऐक्य-सुख को विवेक तथा आन्तरिक अनुभूति पूर्वक आत्मरमण के सुख से जोड़कर भोगवृत्ति को परिष्कृत करने का तथा कामप्रवाह से आत्मप्रवाह में लाने का एक विलक्षण उपक्रम उपस्थापित किया है। यह प्रसंग भी विवेचन और विश्लेषण की दृष्टि से गद्यकाव्य का एक सुन्दर और आकर्षक रूप है पर बड़ा जटिल और कठिन है।
आचार्य शुभचन्द्र ने तन्त्रादि की मान्यता के अनुसार त्रितत्त्व का विकास किया। उन्होंने त्रितत्त्व का स्वरूप तो उपस्थित किया है किन्तु अन्तत: वे यह नहीं मानते कि इससे कोई बहुत बड़ी विशिष्ट सिद्धि प्राप्त हो। शिवतत्त्व के सम्बन्ध में जो कहा गया है वह तो वास्तव में आत्मतत्त्व को अधिगत करने की आराधना में परम्परा से प्राप्त है ही। एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जब इनसे कोई विशेष सिद्धि प्राप्त नहीं होती तो इनके विश्लेषण को उन्होंने क्यों आवश्यक माना। जैसा उनके 112. वही, कामतत्त्व, पृ. 177-179 ~~~~~~~~~~~~~~~ 56 ~~~~~~~~~~~~~~~
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